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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
उत्थानिका
आगे इस ही का समर्थन है कि 'ऐसी ऋद्धि ही नहीं चाहता तो अन्य सांसारिक सुख की क्या कथा !' :
किं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं ।
जाणतो परसंतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो ।। १३१।।
फिर नर - सुरों के तुच्छ सुख से, क्या करेंगे मोह वे
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मुनिधवल जो जानें रू देखें, चिंतवें हैं मोक्ष को । । १३१ । ।
अर्थ
सम्यग्द ष्टि जीव पूर्वोक्त प्रकार की ऋद्धि ही को नहीं चाहता है तो जो 'मुनिधवल'
अर्थात् मुनिप्रधान है वह अन्य जो मनुष्य और देवों के सुख भोगादि जिनमें अल्प सार है उनमें क्या मोह को प्राप्त होगा ! कैसा है मुनिधवल - मोक्ष को जानता है, उस ही की तरफ द ष्टि है तथा उस ही का चिन्तन करता है ।
भावार्थ
जो मुनिप्रधान हैं उनकी भावना मोक्ष के सुख में है। वे बड़ी-बड़ी देव और विद्याधरों की फैलाई हुई विकिया ऋद्धि में ही लालसा नहीं करते तो किंचित् मात्र विनाशीक जो मनुष्य और देवों के भोगादि का सुख उनमें वांछा कैसे करें अर्थात् नहीं करते ।। १३१ । ।
उत्थानिका
आगे उपदेश करते हैं कि 'जब तक जरा आदि न आवें तब तक अपना हित कर लो :
उत्थरइ जा ण जरओ इंदियबलं ण वियलइ
रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं' ।
ताव तुमं कुणहि अप्प हिउं ।। १३२ । ।
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टि0-1. इस पंक्ति में दो जगह आए हुए 'जा' पाठ के स्थान पर 'जाव' पाठ अधिक उपयुक्त जंचता है ।
५-१३१
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