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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित .... आचार्य कुन्दकुन्द DOO ADOG) ||ROCE अर्थ आचार्य कहते हैं कि 'जो मुनि सम्यग्दर्शन, श्रेष्ठ-विशिष्ट ज्ञान और निर्दोष चारित्र इनसे शुद्ध हैं तथा इसी कारण भाव से सहित हैं और प्रणष्ट हुए हैं 'माया' अर्थात कपट परिणाम जिनके ऐसे हैं वे धन्य हैं, उनके लिए मेरा मन-वचन-काय से सदा नमस्कार हो।' भावार्थ भावलिंगियों में दर्शन-ज्ञान-चारित्र से जो शुद्ध हैं उनके प्रति आचार्य के भक्ति उत्पन्न हुई है इसलिये उनको धन्य कहकर नमस्कार किया है सो युक्त है। जिनको मोक्षमार्ग में अनुराग है वे जिनकी मोक्षमार्ग की प्रव त्ति में प्रधानता दीखती है उनको नमस्कार करते ही करते हैं। ।१२७ ।। उत्थानिका 崇崇崇崇崇崇崇先業業業%崇勇崇崇崇崇崇崇崇 आगे कहते हैं कि 'जो भावश्रमण हैं वे देवादि की ऋद्धि को देखकर मोह को प्राप्त नहीं होते' :इड्ढिमतुला विउविय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं। तेहि वि ण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो।। १३०।। किम्पुरुष, किन्नर, सुर, खचर, विक्रिया से यदि विस्तरे। ऋद्धि अतुल हों भावनायुत, धीर उनसे भी मुग्ध नहिं । ।१३० ।। अर्थ 'जिनभावना' जो सम्यक्त्व भावना उससे वासित जो जीव है सो किन्नर, किंपुरुष देव, कल्पवासी देव और विद्याधर इनसे विक्रिया रूप विस्तार की गई जो अतुल ऋद्धि उनसे मोह को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि कैसा है सम्यग्द ष्टि जीव-धीर है, द ढबुद्धि है और निःशंकित अंग का धारक है। भावार्थ जिसके जिनसम्यक्त्व दढ़ है उसके संसार की ऋद्धि त णवत् है, परमार्थ सुख न ही की भावना है, विनाशीक ऋद्धि की वांछा क्यों हो !||१३०।। 業業樂業崇明崇勇業 樂業藥業業業助業 營業养养崇明藥崇崇崇勇兼崇勇攀事業事業事業蒸蒸勇崇勇樂
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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