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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित WisesWANING आचार्य कुन्दकुन्द ADGE Dool Deo नहीं कर सकता है इसलिए दुःखों को पाता है अतः उपदेश करते हैं कि 'दोनों का गुण-दोष जानकर भावसंयमी होना योग्य है' यह सारे उपदेश का संक्षेप है।।१२७ ।। उत्थानिका फिर भी इसी का अर्थ रूप भाव संक्षेप से कहते हैं :तित्थयरगणहराई अब्भुदयपरंपराई सुक्खाई। पावंति भावसहिया संखेवेणेति वज्जरियं ।। १२४।। तीर्थेश, गणधर आदि के, अभ्युदययुत जो सौख्य हैं। पाते हैं भावसहित मुनी, संक्षेप से ऐसा कहा ।।१२8 ।। अर्थ 帶幾步骤步骤步骤業業樂業業助兼業助業兼藥%崇崇勇崇崇 जो भाव सहित मनि हैं वे अभ्युदय सहित तीर्थंकर-गणधर आदि पदवी के जो सुख उनको पाते हैं-यह संक्षेप से कहा है। भावार्थ तीर्थंकर, गणधर, इन्द्र और चक्रवर्ती आदि पदों के सुख बड़े अभ्युदय सहित हैं उनको भाव सहित सम्यग्द ष्टि मुनि हैं वे पाते हैं-यह सब उपदेश का संक्षेप से सार कहा है इसलिये भावसहित मनि होना योग्य है।।१२8 ।। उत्थानिका 營業养养崇明藥崇崇崇勇兼崇勇攀事業事業事業蒸蒸勇崇勇樂 आगे कहते हैं कि 'जो भावश्रमण हैं वे धन्य हैं, उनको हमारा नमस्कार हो' : ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं। भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पण?मायाणं ।। १२9।। हैं धन्य वे उनको नमन हो, नित्य मन-वच-काय से। वर ज्ञान-दर्शन-चरण शुद्ध जो, भावयुत मायारहित ।।१२७ ।। 崇明崇崇明崇明崇明崇勇戀戀戀戀兼業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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