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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOO DOG) Dool -Doc Dog/ Oload दग्ध हो जाता है इसलिए फिर संसार रूपी अंकुर किससे हो अर्थात् नहीं होता अतः भावश्रमण होकर धर्म-शुक्ल ध्यान से कर्मों का नाश करना योग्य है-यह उपदेश है। कोई सर्वथा एकांती अन्यवादी कहता है कि 'कर्म अनादि है, उसका अंत भी नहीं होता' उसका यह निषेध भी है। बीज अनादि है सो एक बार दग्ध हुए पीछे फिर नहीं उगता-वैसे जानना ।।१२६ ।। उत्थानिका 帶幾步骤步骤步骤業業樂業業助兼業助業兼藥%崇崇勇崇崇 आगे संक्षेप से उपदेश करते हैं :भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य। इय णाऊ गुणदोसे भावेण य संजदो' होहि।। १२७ ।। पाते सुखों को भावमुनि अरु द्रव्यमुनि दुःखों को रे। गुण-दोष ऐसे जानकर, तू भाव से संयुक्त हो।।१२७ ।। 營業养养崇明藥崇崇崇勇兼崇勇攀事業事業事業蒸蒸勇崇勇樂 अर्थ भावश्रमण तो सुखों को पाता है और द्रव्यश्रमण है सो दुःखों को पाता है-इस प्रकार गुण-दोषों को जानकर हे जीव ! तू भाव से संयमी हो। भावार्थ भावश्रमण तो सम्यग्दर्शन सहित होता है, वह संसार का अभाव करके सुखों को पाता है और मिथ्यात्व सहित द्रव्यश्रमण वेष मात्र होता है, वह संसार का अभाव टि0-1. अन्य सब प्रतियों में इस 'भावेण य सजंदो' पाठ के स्थान पर 'भावेण य संजुदो' (सं0-भावेन च संयुत:) पाठ है। यह पाठ भी काफी उचित प्रतीत हो रहा है क्योंकि इसमें भाव श्रमण की सुखयुक्तता का वर्णन कर भाव से संयुक्त होने की प्रेरणा दी गई है। इसका अर्थ करते हुए 'श्रु0 टी0' में लिखा है कि 'भाव से' अर्थात् 'जिनभक्ति और निजात्मा की भावना से' सहित होता हुआ पच गुरुओं की चरण रज से राजत ललाटतर से तू 'संयुत' अर्थात् 'संयुक्त' हो और ऐसा करने से ही तू 'युक्त' (Ji सुखं, तेन युक्तो) अर्थात् 'सुख से सहित' हो सकेगा। 勇攀業業崇崇崇崇崇崇崇崇明崇明崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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