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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
साध्य नहीं है, जो कुछ आत्मा के स्वभाव की प्रवत्ति के व्यवहार के भेद हैं। उनकी 'गुण' संज्ञा है, उनकी भावना रखना ।'
यहाँ इतना और जानना कि गुणस्थान चौदह कहे हैं, उस परिपाटी से गुण-दोषों का विचार है । उनमें मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तो विभाव परिणति ही है, इनमें तो गुण का विचार ही नहीं है। अविरति, देशविरति आदि में गुण का एकदेश आता है। अविरत में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव रूप गुण का एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र राग-द्वेष का अभाव रूप गुण आता है और देशविरत में कुछ व्रत का एकदेश आता है। प्रमत्त में महाव्रत रूप सामायिक चारित्र का एकदेश आता है क्योंकि संसार, देह सम्बन्धी तो राग-द्वेष वहाँ नहीं है परन्तु धर्म सम्बन्धी राग है और सामायिक राग-द्वेष के अभाव का नाम है इसलिए सामायिक का एकदेश ही कहलाता है और
यहाँ स्वरूप के सन्मुख होने में क्रियाकांड के सम्बन्ध से प्रमाद है इसलिए प्रमत्त नाम दिया है। अप्रमत्त में स्वरूप के साधने में प्रमाद तो नहीं है परन्तु कुछ स्वरूप
के साधने का व्यक्त राग है इसलिए वहाँ भी सामायिक का एकदेश ही कहलाता है। अपूर्वकरण-अनि त्तिकरण में राग व्यक्त नहीं है, अव्यक्त कषाय का सद्भाव है इसलिये सामायिक चारित्र की पूर्णता कही है। तथा सूक्ष्मसांपराय है सो अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई इसलिए इसका नाम 'सूक्ष्मसांपराय' दिया तथा उपशान्तमोह
और क्षीणमोह में कषाय का अभाव ही है इसलिए जैसा आत्मा का मोह के विकार
रहित शुद्ध स्वरूप था उसका अनुभव हुआ अतः वहाँ 'यथाख्यात चारित्र' नाम
पाया। ऐसे मोह कर्म के अभाव की अपेक्षा तो वहाँ ही उत्तर गुणों की पूर्णता कही
जाती है परन्तु आत्मा का स्वरूप अनन्तज्ञानादि स्वरूप है सो घातिकर्म का नाश
होने पर अनन्त ज्ञानादि प्रकट होते हैं तब 'सयोगकेवली' कहे जाते हैं, वहाँ भी
कुछ योगों की प्रवत्ति है इसलिए 'अयोगकेवली' चौदहवाँ गुणस्थान है वहाँ योगों
की प्रवत्ति मिटकर अवस्थित आत्मा हो जाती है तब चौरासी लाख उत्तर गुणों की
पूर्णता कही जाती है। ऐसे गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तर गुणों की प्रवत्ति का विचार
करना । ये बाह्य की अपेक्षा भेद हैं, अन्तरंग की अपेक्षा विचार करें तो संख्यात,
असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं- ऐसा जानना । । १२० ।।
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