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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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संज्ञा से गुणा करने पर एक हजार अस्सी होते हैं। इनको अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ-इन सोलह कषायों से गुणा करने पर सतरह हजार दो सौ अस्सी होते हैं। इनमें अचेतन स्त्री के सात सौ बीस मिलाने पर अठारह हजार होते हैं। ऐसे स्त्री के संसर्ग से विकार परिणाम होते हैं सो कुशील हैं और उनके अभाव रूप परिणाम वे शील हैं, इनकी भी 'ब्रह्मचर्य' संज्ञा है।
चौरासी लाख उत्तर गुण ऐसे हैं-आत्मा के विभाव परिणामों के बाह्य कारणों की अपेक्षा जो भेद होते हैं उनके अभाव रूप ये गुणों के भेद हैं। उन विभावों के भेदों की गणना संक्षेप से ऐसे है-१. हिंसा, २. अन त, ३. स्तेय, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ६. लोभ, १०. भय, ११. जुगुप्सा, १२. अरति, १३. रति, १४. मनोदुष्टत्व, १५. वचनदुष्टत्व, १६. कायदुष्टत्व, १७. मिथ्यात्व, १८. प्रमाद, १६. पैशुन्य, २०. अज्ञान और २१. इन्द्रिय का अनिग्रह-ऐसे इक्कीस दोष हैं, इनको अतिकम, व्यतिकम, अतिचार और अनाचार-इन चार से गुणा करने पर चौरासी होते हैं। तथा प थ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक और साधारण-ये तो स्थावर एकेन्द्रिय जीव छह, विकलत्रय तीन और पंचेन्द्रिय एक-ऐसे जीवों के दस भेद, इनका परस्पर आरम्भ से घात होते आपस में गुणा करने पर एक सौ होते हैं, इनसे चौरासी को गुणा करने पर चौरासी सौ होते हैं। इनको दस शील की विराधना से गुणा करने पर चौरासी हजार होते हैं। उन दस के नाम ये है १. स्त्रीसंसर्ग २. पुष्टरसभोजन, ३. गंधमाल्य का ग्रहण, ४. सुन्दर शयन-आसन का ग्रहण, ५. भूषण का मंडन, ६. गीतवादित्र का प्रसंग, ७. धन का संप्रयोग, ८. कुशील का संसर्ग, ६. राजसेवा और १०. रात्रिसंचरण-ये दस शील की विराधना हैं। इनको आलोचना के जो दस दोष हैं कि जो गुरु के पास लगे हुए दोषों की आलोचना करे सो सरल हो करके न करे, कुछ शल्य रखे, उसके दस भेद किए हैं, उनसे गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार होते हैं। तथा आलोचना को आदि देकर प्रायश्चित्त के दस भेद हैं, उनसे गुणा करने पर चौरासी लाख होते हैं। सो ये सब दोषों के भेद हैं, इनके अभाव से गुण हैं, इनकी भावना रखे, चिन्तवन और अभ्यास रखे और इनकी संपूर्ण प्राप्ति होने का उपाय रखे-इस प्रकार इनकी भावना का
उपदेश है। आचार्य कहते हैं कि 'बार-बार बहुत वचन के प्रलाप से तो कुछ 明崇崇明崇勇崇明崇明崇明藥崇崇崇崇崇明崇勇
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