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________________ 卐卐 卐業業卐 आचार्य कुन्दकुन्द हे मुने ! * अष्ट पाहड़ उत्थानिका आगे भेदों के विकल्प से रहित होकर ध्यान करने का उपदेश करते है: झायहि धम्मं सुक्कं अट्टरउद्दं च झाण मुत्तूण । रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ।। १२१ । । ध्याया है आरत- रौद्र को, इस जीव ने चिरकाल से । अब ध्या धरम व शुक्ल तू, तज ध्यान आर्त व रौद्र को । ।१२१ । । स्वामी विरचित अर्थ तू आर्त-रौद्र ध्यानों को छोड़ और जो धर्म-शुक्ल ध्यान हैं उनको ध्या क्योंकि रौद्र और आर्त ध्यान तो इस जीव ने अनादि से लगाकर बहुत काल तक ध्याये हैं । 卐卐卐卐 भावार्थ आर्त-रौद्र ध्यान तो अशुभ हैं, संसार के कारण हैं। ये दोनों ध्यान तो जीव के बिना उपदेश ही अनादि से प्रवर्त रहे हैं इसलिए इनको तो छोड़ने का उपदेश है तथा धर्म - शुक्ल ध्यान वे स्वर्ग - मोक्ष के कारण हैं, उनको कभी भी ध्याया नहीं इसलिए उनको ध्याने का उपदेश है। ध्यान का स्वरूप 'एकाग्रचिंतानिरोध' कहा है वहाँ धर्मध्यान में तो धर्मानुराग का सद्भाव है सो मोक्षमार्ग के कारणों में धर्म के राग सहित 'एकाग्रचिंतानिरोध' होता है इसलिए शुभ राग के निमित्त से पुण्यबंध भी होता है और विशुद्धि के निमित्त से पापकर्म की निर्जरा भी होती है। तथा शुक्ल ध्यान में आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में तो अव्यक्त राग है, वहाँ अनुभव की अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है इसलिए शुक्ल नाम पाया है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग कषाय का अभाव ही है इसलिए सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्ल ध्यान युक्त ही है। यहाँ इतना विशेष और है कि उपयोग के एकाग्रपने रूप ध्यान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त कही है उस अपेक्षा तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में ध्यान का उपचार है और योग क्रिया के थंभने की अपेक्षा ध्यान कहा है। यह शुक्ल ध्यान कर्म की निर्जरा करके जीव को उपदेश जानना । । १२१ । । मोक्ष प्राप्त कराता है-इस प्रकार ध्यान का ५-१२३ 卐 縑糕糕糕糕糕糕糕糕糕懟懟縢
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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