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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
विपरीत जिन आज्ञा का श्रद्धानी सम्यग्द ष्टि जीव है सो विशुद्ध भाव को प्राप्त हुआ शुभ को बांधता है क्योंकि इसके सम्यक्त्व के माहात्म्य से ऐसे उज्ज्वल भाव हैं जिससे मिथ्यात्व के साथ बंधने वाली पाप प्रक तियों का अभाव है, कदाचित्-किंचित् कोई पाप प्रक ति बंधती है उसका अनुभाग मंद होता है, कुछ तीव्र पाप फल का दाता नहीं है इसलिए सम्यग्द ष्टि शुभ कर्म ही का बांधने वाला है। इस प्रकार शुभ-अशुभ कर्मबंध का संक्षेप से विधान सर्वज्ञदेव ने कहा है सो जानना । । 998।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि हे मुनि ! तू ऐसी भावना कर :
णाणावरणादीहिं य अट्टहिं कम्मेहिं वेढिओ य अहं ।
दहिऊण इण्हि पयडमि अनंतणाणाइगुणचित्तं ।। १११ ।। वेष्ठित हूँ मैं ज्ञानावरण, आदी जिन आठों कर्म से ।
कर दग्ध प्रकटाऊँ अमित, ज्ञानादि गुणमय चेतना । । १११ ।।
अर्थ
मुनिवर ! तू ऐसी भावना कर कि 'मैं ज्ञानावरण को आदि लेकर जो आठ कर्म हैं उनसे घिरा हुआ हूँ इसलिए उनको भस्म करके अनंत ज्ञानादि गुणस्वरूप चेतना को प्रकट करता हूँ।'
भावार्थ
स्वयं को कर्मों से ढका हुआ माने और उनसे अपने अनंत ज्ञानादि गुण आच्छादित माने तब उन कर्मों का नाश करने का विचार करे इसलिए कर्मों के बंध की और उनके अभाव की भावना करने का उपदेश है और कर्मों का अभाव शुद्धस्वरूपके ध्यान से होता है सो करने का उपदेश है। कर्म आठ हैं, उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय - ये तो घातिया कर्म हैं, इनकी प्रकति सैंतालीस हैं । उनमें केवलज्ञानावरण से तो अनंत ज्ञान आच्छादित है, 卐業卐業專業
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