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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
केवलदर्शनावरण से अनंत दर्शन आच्छादित है, मोहनीय से अनंत सुख प्रकट नहीं होता और अन्तराय से अनंत वीर्य प्रकट नहीं होता सो इनका नाश करना। चार अघातिया कर्म हैं उनसे अव्याबाधत्व, अगुरुलघुत्व, सूक्ष्मता और अवगाहना-ये प्रकट नहीं होते। इन अघातिया कर्मों की प्रकति एक सौ एक हैं, उनका घातिया कर्मों का नाश होने पर स्वयमेव अभाव होता है ऐसा जानना । ।११9 । ।
उत्थानिका
आगे इन कर्मों का नाश होने के लिये अनेक प्रकार का उपदेश है, उसको संक्षेप से कहते हैं :
सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाइं ।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा । । १२० । ।
अठदस सहस तो शील, लख चौरासी
गुण के समूह की।
कर भावना अनुदिन निखिल, प्रलपन निरर्थक बहु से क्या ! । । १२० ।।
अर्थ
शील तो अठारह हजार भेद रूप है तथा उत्तर गुण चौरासी लाख हैं, वहाँ आचार्य कहते हैं कि हे मुने ! बहुत झूठे प्रलाप रूप निरर्थक वचनों से क्या ! इन शीलों को और उत्तर गुणों को सबको तू निरन्तर भा; इनकी भावना, चितवन और अभ्यास निरन्तर रख तथा इनकी प्राप्ति हो वैसा कर ।
भावार्थ
जो जीव नामक वस्तु है सो अनंत धर्मस्वरूप है, वहाँ संक्षेप से उसकी दो परिणति हैं-एक स्वभाव रूप और एक विभाव रूप। उसमें स्वाभाविक तो शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतना परिणाम है और विभाव परिणाम कर्म के निमित्त से हैं । वे प्रधानता से तो मोह कर्म के निमित्त से हुए संक्षेप से मिथ्यात्व और राग-द्वेष हैं, उनके विस्तार से अनेक भेद हैं तथा अन्य कर्मों के उदय से जो विभाव होते हैं उनमें पौरुष प्रधान नहीं है इसलिए उपदेश अपेक्षा वे गौण हैं । इस प्रकार ये शील
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