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________________ अष्ट पाहुड़ . .at स्वामी विरचित Westerest आचार्य कुन्दकुन्द Dool Dos ADOG) ADGIS Dee/ DoA HDools के पापकर्म का बंध होता है सो पाप बंध करने वाला जीव कैसा है जिसके जिनवचन के श्रद्धा नहीं है। __ इस विशेषण का यह आशय है कि 'अन्यमत के श्रद्धानी के जो कदाचित् शुभ लेश्या के निमित्त से पुण्य का बंध भी होता है तो उसको पाप ही में गिनते हैं क्योंकि एक भव में कुछ पुण्य का उदय भोगे पीछे वह पाप ही का कारण होता है इसलिए परम्परा से पाप ही में गिना जाता है और जो जिन आज्ञा में प्रवर्तता है उसके कदाचित्-किंचित् पाप भी बंधे तो भी वह जीव पुण्य जीवों ही की पंक्ति में गिना जाता है। मिथ्याद ष्टि को पाप जीवों में गिना है और सम्यग्द ष्टि को पूण्य जीवों में गिना है।' इस प्रकार पापबंध के कारण कहे ।।११७।। 聯繫听听听听听听听听听听听听听听听听業 आगे 'इससे उल्टा जो जीव है वह पुण्य बांधता है'-ऐसा कहते हैं : तविवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो। दुविहपयारं बंधइ संखेवजिणेण वज्जरियं ।। ११8।। विपरीत उससे भावशुद्धिवंत, बाँधे कर्म शुभ । बाँधता द्विविध प्रकार ऐसे, जिन कहा संक्षेप से ।।११8 ।। अर्थ उस पूर्वोक्त मिथ्यात्व रहित सम्यग्द ष्टि जीव है सो शुभ कर्म को बांधता है। कैसा है वह जीव-भावों की जो विशुद्धता उसको प्राप्त है। ऐसे दो प्रकार के भावों से दोनों सम्यग्द ष्टि और मिथ्याद ष्टि जीव शुभाशुभ कर्म को बांधते हैं-यह संक्षेप से जिनदेव ने कहा है। भावार्थ पूर्व में कहा जिनवचन से पराड्.मुख जो मिथ्यात्व सहित जीव, उससे 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 崇明崇明崇崇明崇樂網 -- 崇明拳拳拳拳崇明藥
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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