________________
अष्ट पाहुए .
sarata
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
FDOG)
||ROO
SEOCE
ROCE
Dod Dool
यह विकार यदि इसके न हो तो आस्रव-बंध इसके न हो तथा कदाचित् मैं भी इसको देख विकार रूप परिणमण करूँ तो मेरे भी आस्रव-बंध हो इसलिए मुझको विकार रूप नहीं होना यह संवर तत्त्व है और बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका विकार मेट्रं-इस प्रकार तत्त्व की भावना से अपना भाव अशुद्ध नहीं होता इसलिए जो द ष्टिगोचर पदार्थ हों उनमें ऐसे तत्त्व की भावना रखनी-यह तत्त्व की भावना का उपदेश है।।११४ ।।
उत्थानिका
禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁
आगे कहते हैं कि 'तत्त्व की भावना जब तक नहीं है तब तक मोक्ष नहीं है' :
जाव ण भावइ तच्च जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाई। ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ।। ११५ ।। भावे न जबतक तत्त्व, जबतक चिन्तनीय न चिंतवे। तब तक न पाता जीव यह, जरमरणवर्जित थान को।।११५ ।।
先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁
अर्थ हे मुने ! जब तक यह जीव जीवादि तत्त्वों को नहीं भाता है तथा चितवन करने योग्य वस्तुओं का चितवन नही करता है तब तक जरा और मरण से रहित जो स्थान मोक्ष उसको नहीं पाता है।
भावार्थ तत्त्व की भावना तो जो पूर्व में कही वह और चितवन करने योग्य धर्म-शुक्ल ध्यान की विषयभूत ध्येय वस्तु जो अपना शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनाभाव और ऐसा ही अरहंत-सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप उसका चितवन-ये दोनों जब तक इस आत्मा के नहीं हैं तब तक संसार से निव त्त होना नहीं है इसलिए तत्त्व की भावना और शुद्ध स्वरूप के ध्यान का उपाय निरन्तर रखना यह उपदेश है।।११५ ।।
步骤業樂業禁藥
.५-११४
崇漲漲漲漲勇崇明業 mmyn