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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
इनसे बंधती है और कर्म पुद्गल जो ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार होकर
बंधते हैं वे प्रकति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार प्रकार के होकर बंधते हैं। वे पुद्गल हैं सो मेरे प्रदेशों में एकक्षेत्र अवगाह रूप होकर बंधते हैं, वे मेरे भाव तथा
पुद्गल कर्म सब हेय हैं, संसार के कारण हैं, मुझको राग-द्वेष-मोह रूप नहीं होना - इस प्रकार भावना करनी ।
(५) पाँचवां तत्त्व संवर है सो राग-द्वेष-मोह रूप जो जीव के भाव हैं उनका नहीं होना और दर्शन - ज्ञान रूप चेतना भाव में स्थिर होना - यह संवर है सो तो अपना भाव है और पुद्गल कर्म का आस्रव न होना वह पुद्गल का भाव सो यह संवर तत्त्व उपादेय है, इससे कर्म की निर्जरा होकर मोक्ष होता है और संसार का भ्रमण मिटता है। इस प्रकार इन पाँच तत्त्वों की भावना करने में आत्मतत्त्व की भावना प्रध् न है, उससे कर्म की निर्जरा होकर मोक्ष होता है तब आत्मा का भाव अनुक्रम से शुद्ध होना - यह तो निर्जरा तत्त्व हुआ और सारे कर्मों का अभाव होना - यह मोक्ष तत्त्व हुआ। इस प्रकार सात तत्त्वों की भावना करनी ।
इसी से आत्मतत्त्व का विशेषण किया कि आत्मतत्त्व कैसा है- धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का अभाव करता है, इसकी भावना से त्रिवर्ग से भिन्न जो चौथा पुरूषार्थ मोक्ष है वह होता है ।
यह आत्मा ज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप अनादिनिधन है, इसका आदि भी नहीं है और 'निधन' अर्थात् नाश भी नहीं है। तथा भावना नाम बार-बार जो चिंतवन करना, अभ्यास करना इसका है सो मन से, वचन से, काय से तथा स्वयं करना, दूसरे से कराना तथा करते हुए को भला जानना - ऐसे त्रिकरण शुद्ध करके भावना करनी; माया, मिथ्या व निदान शल्य नहीं रखनी और ख्याति - लाभ-पूजा का आशय नहीं रखना - इस प्रकार तत्त्व की भावना करने से भाव शुद्ध होते हैं।
इसका उदाहरण इस प्रकार है कि जब स्त्री आदि इंद्रियगोचर हों तब उसमें तत्त्व का विचार करना कि 'यह स्त्री है सो क्या है ?' यह जीव नामक तत्त्व की एक पर्याय है और इसका शरीर है सो पुद्गल तत्त्व की पर्याय है और यह हाव-भाव चेष्टा करती है सो इस जीव के तो विकार हुआ है वह आस्रव तत्त्व है और बाह्य चेष्टा पुद्गल की है। इस विकार से इस स्त्री की आत्मा के कर्म का बंध होता है,
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