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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदंसणविसुद्धो' । उत्तमबोहिणिमित्तं असार संसार2 अविकार दर्शन से विशुद्ध हो, बोधि उत्तम के लिए ।
तू असार भव को जानकर, दीक्षासमय आदि को भा । । ११० ।। अर्थ
हे मुने! तू दीक्षाकाल आदि की भावना करें कैसा होता हुआ कर- 'अविकार' अर्थात् अतिचार रहित जो निर्मल सम्यग्दर्शन उससे सहित होता हुआ कर। पूर्व में
स्वामी विरचित
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टि-1300 टी0' में 'अवियार ! दंसणविसुद्धो' ऐसे दो पद दिए हैं जिसमें 'अवियार!" सम्बोधन सूचक पद है।
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विवेचना करते हुए वहाँ लिखा है कि 'अवियार' की सं छाया 'अविचार एवं अविकार' दोनों हो सकती है। अविचार अर्थात् हे निर्विवेक जीव !' और अविकार अर्थात् हे रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामवर्जितजीव !' वहीं आगे लिखा है कि 'आवियारदंसणविसुद्ध ऐसा एक पद करने पर 'अविकार' अर्थात् 'पच्चीस दोष रहित, 'न' अर्थात् 'सम्यक्त्व रत्न से', विशुद्ध' अर्थात् 'अनन्त भव पाप रहित होता हुआ ऐसा अर्थ होता है। 2. अन्य प्रतियों में एक सौ दसवीं गाथा में 'असारसंसार' के स्थान पर 'असारसाराई' वा 'असारसाराणि' पाठ है जिसकी सं0 छाया ‘असारसाराणि' देकर अर्थ किया है-'असार व सार को जानकर ।' 'श्रु0 टी0)' में 'क्या असार है एवं क्या सार है' - इसकी चर्चा विस्तार से की है जैसे- मिथ्यादनि असार है, सम्यग्दनि सार है; उन्मार्ग असार है, जिनमार्ग सार है; परनिन्दा असार है, निजनिन्दा सार है; परिग्रह असार है, नैर्ग्रन्थ्य सार है; ममत्व असार है, निर्ममत्व सार है आदि-आदि ।'
मुणिऊण ।। ११० ।।
3. 'श्रु0 टी0 ' - दीक्षा लेते समय इस जीव को परम वैराग्य होता है । उस समय यह सोचता है कि 'आज से लेकर अब मैं स्त्र का मुख नहीं देखूंगा क्योंकि स्त्रियों में रागी होकर ही मैं अनादि काल से संसार में भ्रमण करता हुआ अनचाहे दुःखों को प्राप्त हुआ हूँ और दिन-रात चाहता हुआ भी सुख के ले मात्र को भी प्राप्त नहीं हो सका हूँ।'
‘दीक्षाकाल आदि की भावना' का अर्थ है कि 'दीक्षा के समय की अत्यन्त उत्साहमय अपूर्व विरक्त दI को, किसी रोग आदि के समय प्रस्फुरित सद्विचारों को किसी उपदे[]] या तत्त्वविचारादि के अवसर पर अंत:करण में जगी ज्ञान-वैराग्य भावना को और दरिद्रता या किसी दुःख के समय प्रकट हुई उदासीन द को जीव को भुला नहीं देना चाहिए, निरन्तर स्मरण रखना चाहिए विचारशून्य होकर उसे पुनः विषयों की ओर आकृष्ट नहीं हो जाना चाहिए।'
इस सम्बन्ध में 'श्रु0 टी0' में एक लोक उद्धत किया है जिसका अर्थ है - है जीव ! मन के कुछ स्वस्थ होते ही तू दु:ख रूपी अग्नि की लपलपाती ज्वालाओं को शीघ्र ही भूल जाता है। दुःख के समय तेरी बुद्धि
में जो सद्विचार प्रस्फुरित हुए थे वे यदि पीछे भी अर्थात् दुःख दूर हो जाने के बाद भी स्थिर रहते तो तुझे दुःख होता ही कैसे !'
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專業
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