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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
हैं उनके उत्तम क्षमा होती है । वे तो सब मनुष्य, देव और विद्याधरों के द्वारा स्तुति
योग्य होते ही होते हैं और उनके सब पापों का क्षय होता ही होता है इसलिए क्षमा करना योग्य है - ऐसा उपदेश है। क्रोधी सबके द्वारा निंदा करने योग्य होता है इसलिए क्रोध का छोड़ना श्रेष्ठ है । । १०८ ।।
उत्थानिका
आगे 'ऐसे क्षमा गुण को जानकर क्षमा करना एवं क्रोध छोड़ना' ऐसा कहते हैं :इय णाऊण खमागुण ! खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं ।
चिरसंचियको हसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह । । १०१ ।। यह जान क्षमागुण ! कर क्षमा, सब जीव मन - वच-काय से ।
चिरकाल संचित क्रोध अग्नी, क्षमा जल से सींच तू । । १०१ ।।
अर्थ
मुने ! हे क्षमागुण ! 'क्षमागुण' क्षमा है गुण जिसका ऐसे मुनि का संबोधन है। ‘इति’ अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार क्षमा गुण को जान और सब जीवों पर मन-वचन-काय से क्षमा कर तथा बहुत काल से संचित की हुई जो क्रोध रूपी अग्नि उसे क्षमा रूपी जल से सींच अर्थात् बुझा ।
भावार्थ
क्रोध रूपी अग्नि है सो पुरुष में जो भले गुण हैं उनको दग्ध करने वाली है और पर जीवों का घात करने वाली है इसलिए इसको क्षमा रूपी जल से बुझाना, अन्य प्रकार से यह बुझती नहीं और क्षमा गुण सब गुणों में प्रधान है इसलिए यह उपदेश है कि 'क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण करना' ।। १०६ ।।
उत्थानिका
आगे दीक्षाकालादि की भावना का उपदेश करते हैं :
५-१०७
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