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________________ 業業業業業業業業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ अर्थ सत्पुरुष मुनि हैं वे दुर्जन की वचन रूप चपेट जो 'निष्ठुर' अर्थात् कठोर - दया स्वामी विरचित रहित और ‘कटुक' अर्थात् सुनते ही कानों को कड़ी शूल के समान लगे- ऐसी जो चपेट है उसको सहते हैं। किसलिए सहते हैं-कर्मों के नाश होने के लिए सहते हैं। पूर्व में अशुभ कर्म बांधा था उसके उदय के निमित्त से दुर्जन ने कटुक वचन कहा, स्वयं ने सुना और उसको उपशम परिणाम से सहा तब अशुभ कर्म उदय देकर खिर गया, इस प्रकार कटुक वचन सहने से कर्मों का नाश होता है। तथा वे मुनि सत्पुरुष कैसे हैं - अपने भाव से वचनादि से निर्ममत्व हैं, उन्हें वचन से तथा मान कषाय से और देहादि से ममत्व नहीं है, यदि ममत्व हो तो दुर्वचन सहा न जाये, यह जानें कि 'यह वचन मुझको कहा' इसलिए ममत्व के अभाव से नहीं हैं।।१०७।। वे दुर्वचन सहते हैं। अतः मुनि होकर किसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है। लोक में भी जो बड़े पुरुष हैं वे दुर्वचन सुनकर क्रोध नहीं करते तो मुनि को तो सहना उचित ही है। जो क्रोध करते हैं वे कहने के तपस्वी हैं, सच्चे तपस्वी उत्थानिका आगे क्षमा का फल कहते हैं पावं खवइ असेसं खमाइ परिमंडिओ य मुणिपवरो । खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होई ।। १०8 ।। मुनिप्रवर परिमंडित क्षमा से, पाप सर्व ही क्षय करें। नर-अमर-विद्याधरों से, निश्चित वे शंसा योग्य हों । । १०8 । । अर्थ जो मुनिप्रवर-मुनियों में श्रेष्ठ अर्थात् प्रधान क्रोध के अभाव रूप क्षमा से मंडित करने योग्य निश्चय से होते हैं । :– हैं सो मुनि समस्त पापों का क्षय करते हैं तथा विद्याधर, देव और मनुष्यों से प्रशंसा भावार्थ क्षमा गुण बड़ा प्रधान है जिससे सबके स्तुति करने योग्य पुरुष होता है। जो मुनि ५-१०६ 卐卐糕糕 ※糕糕糕糕糕糕糕糕 縢縢業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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