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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
किंचि कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेण ।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मुत्तूण ।। १०६ ।।
किया दोष जो कुछ भी अशुभ भावों से मन-वच - काय से ।
स्वामी विरचित
कर गर्हा उसकी गुरु समीप में, मान-माया छोड़कर । ।१०६ । ।
अर्थ
हे मुने ! जो कुछ स्वयं मन-वचन-काय के द्वारा अशुभ भाव से प्रतिज्ञा में दोष
से प्रकाशित कर ।
किया हो उसको गुरु के पास अपना 'गौरव' अर्थात् महंतपना-गर्व छोड़कर और
'माया' अर्थात् कपट छोड़कर मन-वचन-काय को सरल करके गर्हा कर अर्थात् वचन
भावार्थ
स्वयं को कोई दोष लगा हो और निष्कपट होकर गुरुओं को यदि न कहे तो वह
दोष निव त्त नहीं होता तब आप शल्यवान रहता है तो मुनिपद में यह बड़ा दोष है
इसलिए यह उपदेश है कि 'अपना दोष छिपाना नहीं, जैसा हो वैसा सरल बुद्धि से
गुरुओं के पास कहना तब दोष मिट जायेगा ।' काल के निमित्त से मुनिपद से भ्रष्ट
बनाया - ऐसे विपर्यय हुआ । । १०६ ।।
हुए पीछे गुरुओं के पास प्रायश्चित नहीं लिया तब विपरीत होकर अलग संप्रदाय
उत्थानिका
आगे क्षमा का उपदेश करते हैं
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दुज्जणवयणचडक्कं णिट्टुरकडुयं सहंति सप्पुरिसा ।
कम्ममलणासणट्टं भावेण य णिम्ममा सवणा ।। १०७ ।।
सत्पुरुष मुनि दुर्जन की निष्ठुर, कटूवचन चपेट को ।
(५-१०५ 卐]
सहें कर्ममल नाशार्थ ममता, रहित होकर भाव से । । १०७ ।।
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