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________________ *業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित आराधना के चतुष्क को, पाते हैं भावसहित मुनि । जो भावविरहित मुनी दीरघ, भव भ्रमें चिरकाल तक । 199 ।। अर्थ हे मुनिवर ! जो मुनि भाव सहित हैं वे दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप - ऐसे आराधना के चतुष्क को पाते हैं और वे ही मुनियों में प्रधान है तथा जो भाव रहित मुनि हैं वे बहुत काल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करते हैं । भावार्थ निश्चय सम्यक्त्व जो शुद्ध आत्मा की अनूभूति रूप श्रद्धान है सो ही भाव है - ऐसे भाव सहित जो होता है उसके तो चारों आराधनाएँ होती हैं जिसका फल अरंहत और सिद्ध पद है तथा ऐसे भाव से जो रहित हो उसके आराधनाएँ नहीं होतीं और उसका फल संसार का भ्रमण है ऐसा जानकर भाव शुद्ध करना - यह उपदेश है। 199 ।। उत्थानिका आगे भाव ही के फल का विशेष कहते हैं : पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई । दुखाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए । । १०० । । युत परम्परकल्याण ऐसे, सुख को पाते भावमुनि । तिर्यंच-मनुज-कुदेव योनि में, दुःख पाते द्रव्यमुनि । । १०० ।। अर्थ जो भावश्रमण अर्थात् भाव मुनि हैं वे कल्याण की है परम्परा जिसमें ऐसे सुखों को पाते हैं तथा जो द्रव्यश्रमण अर्थात् वेष मात्र मुनि हैं वे तिर्यंच, मनुष्य और कुदेव योनि में दुःखों को पाते हैं । भावार्थ भावमुनि सम्यग्दर्शन सहित हैं वे तो सोलहकारण भावनाओं को भाकर गर्भ, ५-१०० 卐卐 卐糕糕 ≡≡糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕縢業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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