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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण-इन पंच कल्याणकों सहित तीर्थंकर पद पाकर मोक्ष पाते हैं तथा जो सम्यग्दर्शन रहित द्रव्यमुनि हैं वे मनुष्य, तिर्यंच एवं कुदेव योनि पाते हैं-यह भाव के विशेष से फल का विशेष है।।१०० ।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'अशुद्ध भाव से अशुद्ध ही आहार किया जिससे दुर्गति ही पाई':
छादालदोसदूसियमसणं गसिओ असुद्धभावेण। पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो।। १०१।।
खाया अशन छियालीस दोषों, सहित भाव अशुद्ध से। तिर्यंच गति में अतः भोगा, महादुःख हो अनात्मवश ।।१०१।।
अर्थ हे मुनि ! तूने अशुद्ध भाव से छियालीस दोषों से दूषित अशुद्ध 'अशन' अर्थात् आहार ग्रसा अर्थात् खाया, इस कारण से तिर्यंच गति में पराधीन होते हुए महान बड़े 'व्यसन' अर्थात् कष्ट को प्राप्त हुआ।
भावार्थ मुनि आहार करते हैं सो छियालीस दोष रहित शुद्ध करते हैं, बत्तीस अन्तराय टालते हैं और चौदह मल दोष रहित करते हैं सो जो मुनि होकर के सदोष आहार करे तो ज्ञात होता है कि इसके भाव भी शुद्ध नहीं हैं, उसको यह उपदेश है कि 'हे मुने ! तूने दोष सहित अशुद्ध आहार किया और उससे तिर्यंच गति में पूर्व में भ्रमण किया और कष्ट सहे इसलिए अब भाव शुद्ध करके शुद्ध आहार कर जिससे फिर भ्रमण नहीं करे। छियालीस दोषों में सोलह तो उद्गम दोष हैं जो आहार के उपजने के हैं वे श्रावक आश्रित हैं तथा सोलह उत्पादन दोष हैं वे मुनि के आश्रित हैं तथा दस दोष एषणा के हैं वे आहार के आश्रित हैं तथा चार प्रमाणादि हैं। इनके नाम तथा स्वरूप मूलाचार और आचारसार से
जानना।।१०१।। 業坊業崇勇崇崇明崇明崇崇崇崇崇崇崇明
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