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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई। जीवसमासाइं मुणी! चउदसगुणठाणणामाई।। ६७।।
है सर्वविरत तथापि भा, नौ पदार्थ-सातों तत्त्वों को। गुणथान चौदह के नामादी, और जीवसमास मुनि ! ।।६७ ।।
अर्थ हे मुने ! यद्यपि तू सब परिग्रहादि से विरक्त हुआ है और महाव्रतों से सहित है तो भी भावविशुद्धि के लिये नौ पदार्थ, सात तत्त्व, चौदह जीवसमास और चौदह गुणस्थानों के नाम, लक्षण एवं भेद इत्यादि की भावना कर।
भावार्थ पदार्थों के स्वरूप का चिंतवन करना भावशुद्धि का बड़ा उपाय है इसलिए यह उपदेश है। इनका नाम एवं स्वरूप अन्य ग्रन्थों से जानना।।१७।।
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आगे भावशुद्धि के लिये फिर अन्य उपाय कहते हैं :णवविहबभं पयडदि अब्बभं दसविहं पमुत्तूण। मेहुणसण्णासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ।। 98 ।।
कर प्रकट नवविध ब्रह्म को, अब्रह्म दशविध छोड़कर। हो मिथुनसंज्ञासक्त भ्रमता, रहा भवार्णव भीम में । 98 ।।
अर्थ हे जीव ! तू दस प्रकार के अब्रह्य को छोड़कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रकट कर अर्थात् अपने भावों में प्रत्यक्ष कर। यह उपदेश तुझे इसलिए दिया है क्योंकि तू मैथुन संज्ञा अर्थात् कामसेवन की अभिलाषा में आसक्ति रूप अशुद्ध भाव से ही इस भीम-भयानक संसार रूपी समुद्र में भ्रमा है।
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