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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
पाषाण ऐसा कठोर होता है
स्वामी विरचित
भावार्थ
कि यदि वह जल में बहुत काल तक रहे तो भी
उसमें जल प्रवेश नहीं करता वैसे ही साधु के परिणाम भी ऐसे द ढ़ होते हैं कि परीषह-उपसर्ग आने पर भी वे संयम रूप परिणमन से च्युत नहीं होते और पूर्व में ऐसा कहा था कि साधु जैसे संयम का घात न हो वैसे परीषह सहे और यदि कदाचित् संयम का घात होता जानें तो जैसे उसका घात न हो वैसा करे । । १५ ।।
उत्थानिका
आगे परीषह-उपसर्ग आने पर जैसे भाव शुद्ध रहें वैसा उपाय कहते हैं :
भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि । भावरहिण किं पुण बाहरिलिंगेण कायव्वं । । १६ ।। भा भावना द्वादश व्रतों की भावना पच्चीस को ।
जो भावविरहित बाह्य लिंग, हो उससे क्या, कुछ भी नहीं । । १६ ।।
अर्थ
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हे मुने ! तू 'अनुप्रेक्षा' अर्थात् अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षाओं को भा तथा 'अपर' अर्थात् पाँच महाव्रतों की और भी जो पच्चीस भावनाएँ कही हैं उनको भा । भाव रहित जो बाह्य लिंग उससे तुझे क्या कर्तव्य है अर्थात् कुछ भी नहीं ।
भावार्थ
कष्ट आने पर बारह अनुप्रेक्षाओं और पच्चीस भावनाओं का भाना बड़ा उपाय है। इनका बार-बार चिंतवन करने से क्योंकि कष्ट में परिणाम बिगड़ते नहीं इसलिए ऐसा उपदेश है । ।१६।।
उत्थानिका
आगे फिर भाव शुद्ध रखने के लिए ज्ञान के अभ्यास रूप उपाय को कहते हैं
५-६७
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