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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द -DOG) Co0 HDode Dos Dog/ Dod Dool 4000 दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी ! सयलकाल काएण। सुत्तेण अप्पमत्ता संजमघादं पमोत्तूण।। 9४ ।। हे मुनि ! होकर अप्रमादी, घात संयम छोड़कर । सूत्रानुसार बावीस परिषह, सह सदा तू काय से । १४ ।। अर्थ हे मुने ! तू सदाकाल निरन्तर अपनी काया से 'सुपरीषह' अर्थात् अतिशय से सहने योग्य 'दस दस दो' अर्थात् बाईस परिषहों को 'सूत्रेण' अर्थात् जैसी जिनवचन में कही उस रीति से निष्प्रमादी होते हुए और संयम का घात निवारकर सह। भावार्थ जैसे संयम न बिगड़े और प्रमाद का निवारण हो वैसे क्षुधा एवं त षा आदि बाईस परीषहों को मुनि निरन्तर सहन करो। इसका प्रयोजन सूत्र में ऐसा कहा है कि इनके सहने से कर्मों की निर्जरा होती है, संयम के मार्ग से छूटना नहीं होता और परिणाम दढ़ होते हैं।।१४।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे ‘परीषह सहने में यदि दढ़ हो तो उपसर्ग आने पर भी द ढ़ रहता है और चिगता नहीं इसका द ष्टान्त–दार्टान्त कहते हैं :जह पत्थरो ण भिज्जइ परिडिओ दीहकालमुदएण। तह साहू ण विभिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो।। ६५।।। भिदता नहीं पाषाण ज्यों, चिरकाल जल में रह के भी। त्यों परीषह-उपसर्गों से, साधु भी है भिदता नहीं ।।9५ ।। अर्थ जैसे पाषाण जल में बहुत काल स्थित रहता हुआ भी भेद को प्राप्त नहीं होता वैसे साधु है सो भी उपसर्ग-परीषहों से भिदता नहीं है। 崇勇崇崇勇崇崇崇明崇崇崇崇崇%类業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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