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________________ 卐卐業卐業卐業卐業業卐業業卐業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित गिरिगुफा-नदितट-कंदरादि अवास - परिग्रहत्याग औ । ध्यानाध्ययन सारा निरर्थक, भावविरहित पुरुषों का । 189 ।। अर्थ जो पुरुष भाव से रहित हैं अर्थात् शुद्ध आत्मा की भावना से रहित हैं और बाह्य आचरण से सन्तुष्ट हैं उनका बाह्य परिग्रह का त्याग है सो निरर्थक है; 'गिरि' अर्थात् पर्वत, ‘दरि’ अर्थात् पर्वत की गुफा, 'सरित्' अर्थात् नदी के निकट एवं 'कंदर' अर्थात् पर्वत के जल से विदारित हुए स्थान इत्यादि में 'आवास' अर्थात् बसना निरर्थक है तथा ध्यान करना, आसन से मन को रोकना और अध्ययन अर्थात् शास्त्र का पढ़ना आदि सब निरर्थक हैं I भावार्थ बाह्येक्रिया यदि आत्मज्ञान सहित हो तब तो सफल है अन्यथा सब निरर्थक है। मात्र बाह्य क्रिया का यदि पुण्य फल हो तो भी वह पुण्य संसार ही का कारण है, मोक्ष उसका फल नहीं है । 189 ।। उत्थानिका आगे उपदेश करते हैं कि 'भावशुद्धि के लिये इन्द्रियादि को वश करो, भावशुद्धि के बिना बाह्य वेष का आडम्बर मत करो' : भंज इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण । मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस मा कुणसु ।। १० ।। मुनि ! जीत इन्द्रिसेना मन, मर्कट को वश कर यत्न से। मत धार जनरंजनकरण, बाहिर व्रतों का वेष तू । । १० ।। अर्थ मुने! तू इन्द्रियों की जो सेना है उसका भंजन कर, उसे विषयों में मत रमा, मन रूप बंदर को प्रयत्न से अर्थात् बड़े उद्यम से भंजन कर वशीभूत कर तथा लोक को रंजन करने वाला बाह्य व्रत का वेष मत धारण कर । ५-६३ ※縢糕糕糕糕糕糕糕卐※ 縢業 卐卐糕卷
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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