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अष्ट पाहुड़ .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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का माँस नित्य भक्षण कराता था। रसोइये को सर्प ने डसा सो वह मरकर स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हुआ और सूरसेन राजा मरकर उसके कान में तंदुल मत्स्य हुआ। वहाँ महामत्स्य के मुख में जब अनेक जीव आते और निकल जाते थे तब तंदुल मत्स्य उनको देखकर विचार करता था कि 'यह महामत्स्य निर्भागी है जो मुख में आये हुए जीवों का भक्षण नहीं करता है, मेरा शरीर यदि इतना बड़ा होता तो मैं इस समुद्र के सब जीवों को खा जाता।'
ऐसे भावों के पाप से वह तंदुल मत्स्य जीवों को खाये बिना ही सातवें नरक गया और महामत्स्य तो खाने वाला था ही सो वह तो नरक जाता ही जाता इसलिए अशुद्ध भाव सहित बाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही परन्तु बाह्य हिंसादि पाप किये बिना केवल अशुद्ध भाव भी उस ही के समान है इसलिए भावों में अशुभ ध्यान छोड़कर शुभ एवं शुद्ध ध्यान करना योग्य है। यहाँ ऐसा भी जानना कि 'पहले जो राज्य पाया था वह तो पूर्व में जो पुण्य किया था उसका फल था, पीछे कुभाव हुए तब नरक गया इसलिए आत्मज्ञान के बिना केवल पुण्य ही मोक्ष का साधन नहीं है'||88।।
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उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'भावरहित जीवों का बाह्य परिग्रह का त्याग आदि सब
निष्प्रयोजन है :बाहिरसंगच्चाओ गिरिदरिसरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो1 णिरत्थओ भावरहियाणं ।। 89||
टि0-1.गाथा की इस पंक्ति में 'णाणज्झयणो' पद के स्थान पर अन्यत्र झाणज्झयणो' (सं0-ध्यानाध्ययनं) पाठ
भी मिलता है और पं0 जयचंद जी' कृत 'ध्यान एवं अध्ययन करना' अर्थ की संगति इसी पाठ से बैठती है परन्तु क्योंकि उनकी मूल टीका में ‘णाणज्झयणो' ही पाठ है अत: यहाँ वही दिया गया है। 'म0 टी0' में 'झाणज्झयणो' ही पाठ है और अर्थ भी पाठ के अनुसार ही है। 'श्रु0 टी0' में ‘णाणज्झयणो' पद है और उसका अर्थ उन्होंने 'वाचनापच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदे' लक्षण ज्ञान एवं 'स्अठन' लक्षण अध्ययन किया है।
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५-६२
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