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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
भावार्थ
बाह्य मुनि का वेष लोकरंजन करने वाला है और लोकरंजन से की सिद्धि नहीं है इसलिए यह उपदेश है कि इन्द्रियों और मन को के लिए यदि बाह्य यत्न करे तब तो श्रेष्ठ है परन्तु इन्द्रिय- मन को बिना केवल लोकरंजन मात्र वेष धारण करने में तो कुछ परमार्थ की सिद्धि नहीं है । 190 ।।
वश में किए
उत्थानिका!
आगे फिर उपदेश करते हैं
-
कुछ परमार्थ
वश में करने
णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए । चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाए । । ११ । । मिथ्यात्व अरु नव नोकषायों को, त्याग भाव की शुद्धि हित ।
कर भक्ति जिन आज्ञानुसारी, चैत्य-प्रवचन- गुरुओं की। 199 ।।
अर्थ
हेमुने! तू भावशुद्धि के लिए 'नव' जो हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद - इस नोकषाय वर्ग को तथा मिथ्यात्व को छोड़
फिर कहते हैं :
तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।
तथा जिन आज्ञा के अनुसार चैत्य, प्रवचन और गुरु की भक्ति कर । । 99 ।।
उत्थानिका
भावहि अणुदिण अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ।। १२ ।। तीर्थंकरों ने भाषा गणधर देवों ने गूंथा जिसे ।
प्रतिदिन तू भाव विशुद्ध से भा, उस अतुल श्रुतज्ञान को ।। १२ ।।
५-६४
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