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________________ आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ Mea स्वामी विरचित उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो दर्शन से भ्रष्ट है वह मूल भ्रष्ट है, उसको फल की प्राप्ति नहीं होती' 卐卐糕糕 - जह मूलम्मि विणट्टे दुमस्स परिवार णत्थि परिवड्डी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति ।। १० ।। ज्यों मूल नशते वक्ष के, परिवार की वद्धि न हो । त्यों दर्श से जो भ्रष्ट मूल विनष्ट वह सीझे नही | १० || अर्थ जैसे वक्ष का मूल विनष्ट होने पर उसके परिवार अर्थात् स्कंध, शाखा, पत्ते, फूल एवं फल की वद्धि नहीं होती वैसे जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं- बाह्य में तो नग्न दिगम्बर यथाजात रूप निर्ग्रन्थ लिंग का धारना, मूलगुण का धारण करना, मोर के पंखों की पीछी तथा कमण्डलु का धारण करना और यथाविधि दोष टालकर खड़े होकर शुद्ध आहार करना इत्यादि शुद्ध वेष का धारण करना तथा वेष धारण न हो तो उसका श्रद्धान ही करना और अन्तरंग में जीवादि छह द्रव्य, नौ पदार्थ एवं सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान तथा भेदविज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप का अनुभवन ऐसे दर्शन - मत से जो बाह्य हैं वे मूलविनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती। वे मोक्ष फल को नहीं पाते । । १० ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो जिनदर्शन है सो ही मूल मोक्षमार्ग है' : जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ । तह जिणदंसणमूलो णिद्दिट्टो मोक्खमग्गस्स ।। ११।। ज्यों मूल से स्कंध, शाखा, आदि बहुगुण होय है । त्यों मोक्षपथ का मूल जिन दर्शन ही जिनवर ने कहा । । ११ । । १-२७ 卐糕蛋糕卐 隱卐糕糕卐糕業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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