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________________ अष्ट पाहड़ . स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द । TOVAYANVAR CAMWAVAH Deals BLUCON SANAMANAS HDod से भी भ्रष्ट हैं वे तो निरर्गल (बिना किसी रोक वाले) स्वेच्छाचारी हैं। वे जिस प्रकार स्वयं भ्रष्ट हैं उसी प्रकार अन्य लोगों को उपदेशादि के द्वारा भ्रष्ट करते हैं तथा उनकी प्रव त्ति देखकर लोग स्वयमेव भी भ्रष्ट होते हैं इसलिए ऐसे तीव्र कषायी निषिद्ध हैं, उनकी संगति करना भी उचित नहीं है।।८।। 崇崇养崇崇崇崇崇崇崇明藥藥事業業帶男崇勇勇需 आगे कहते हैं कि 'ऐसे जो भ्रष्ट पुरुष स्वयं भ्रष्ट हैं वे धर्मात्मा पुरुषों को दोष लगाकर भ्रष्ट बताते हैं :जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी। तस्स य दोस कहता भग्गा भग्गत्तणं दिति।।९।।। है धर्म शील, संयम, नियम, तप, योग गुणधारी कोई। उनको लगाए दोष वह खुद, भ्रष्ट दे भ्रष्टत्व को ।।९।। अर्थ जो कोई पुरुष (१) धर्मशील है अर्थात् अपने स्वरूप रूप धर्म साधने का जिसका स्वभाव है, (२) संयम अर्थात् इन्द्रिय-मन का निग्रह और षट्काय के जीवों की रक्षा, (३) तप अर्थात् बाह्य-अभ्यंतर के भेद से बारह प्रकार का तप, (४) नियम अर्थात् आवश्यक आदि नित्यकर्म, (५) योग अर्थात् समाधि, ध्यान तथा वर्षाकाल आदि त्रिकाल योग और (६) गुण अर्थात् मूलगुण एवं उत्तरगुण-इनका धारण करने वाला है उस पर कई मत से भ्रष्ट जीव दोषों का आरोपण करके कहते हैं कि यह भ्रष्ट है, दोषसहित है। वे पापात्मा जीव स्वयं भ्रष्ट हैं इसलिए अपने अभिमान की पुष्टि करने को अन्य धर्मात्मा पुरुषों को भी भ्रष्टपना देते हैं। भावार्थ पापियों का ऐसा ही स्वभाव होता है कि वे स्वयं तो पापी हैं ही और धर्मात्मा में दोष बताकर उसे भी अपने समान करना चाहते हैं-ऐसे पापियों की संगति नहीं करना ।।९।। 崇明崇明業崇崇崇黨然崇明崇明崇明崇崇崇崇明 听器听听器垢器听器听器听器听業职繼听器听听听听器听業听器听器
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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