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आचार्य कुन्दकुन्द
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● अष्ट पाहुड़
बहता है वहाँ बालू रेत नहीं लगती वैसे सम्यक्त्वी जीव कर्म के उदय को भोगता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता । तथा बाह्य व्यवहार की अपेक्षा से ऐसा भी भावार्थ जानना कि जिसके हृदय में निरन्तर सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह बहता है वह सम्यक्त्वी पुरुष इस कलिकाल सम्बन्धित वासना जो कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को नमस्कारादि रूप अतिचार रूपी रज भी नहीं लगाता है और उसके मिथ्यात्व सम्बन्धित प्रकृतियों का आगामी बंध भी नहीं होता है । । ७ ।।
उत्थानिका
Mea स्वामी विरचित
आगे कहते हैं कि 'जो दर्शन से भ्रष्ट हैं और ज्ञान - चारित्र से भी भ्रष्ट हैं वे विशेष रूप से भ्रष्ट हैं। वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु दूसरों को भी भ्रष्ट करते हैं सो यह अनर्थ है :
दे
दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य । भट्टविभट्टा सं पिजणं विणासंति।। ८ ।। दर्शन विषै जो भ्रष्ट है, चारित्र ज्ञान से भ्रष्ट है ।
वह भ्रष्टों में भी भ्रष्ट है, पर को करे वह नष्ट है ।। ८ ।।
अर्थ
जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं तथा ज्ञान - चारित्र से भी भ्रष्ट हैं वे पुरुष भ्रष्टों में भी विशेष भ्रष्ट हैं। कई पुरुष तो दर्शन सहित होते हैं परन्तु ज्ञान - चारित्र जिनके नहीं होता तथा कुछ अंतरंग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं तो भी ज्ञान - चारित्र का भली प्रकार पालन करते हैं और जो दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र इन तीनों ही से भ्रष्ट हैं वे तो अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु 'शेष' अर्थात् अपने अतिरिक्त जो अन्य जन हैं उनको भी नष्ट करते हैं, भ्रष्ट करते हैं।
भावार्थ
यहाँ सामान्य वचन हैं जिनसे ऐसा भी आशय सूचित होता है कि सत्यार्थ श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र तो दूर ही रहो पर जो अपने मत की श्रद्धा, ज्ञान, आचरण 【卐卐糕糕
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