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________________ अष्ट पाहुड़ . .at स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOO ADOG) HDooll Des/ Doo 樂樂崇崇崇崇明崇崇明崇勇攀事業藥藥業崇明崇勇崇勇, मोह कहने से मिथ्यात्व और राग-द्वेष परिणाम लेने जिनमें मिथ्यात्व तो अतत्त्वार्थ श्रद्धान है; क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगप्सा-ये छह द्वेष प्रक ति हैं तथा माया, लोभ, हास्य, रति और पुरुष, स्त्री, नपुंसक ये तीन वेद विकार-ये सात प्रक ति राग रूप हैं, इनके निमित्त से आत्मा का ज्ञान-दर्शन स्वभाव विकार सहित, क्षोभ रूप, चलाचल और व्याकुल होता है और वह आत्मस्वभाव यदि इन विकारों से रहित होकर शुद्ध दर्शन-ज्ञान रूप निश्चल हो सो आत्मा का धर्म होता है। __इस धर्म से आत्मा के आगामी कर्म का आस्रव रुककर संवर होता है, पूर्व में बंधे कर्मों की निर्जरा होती है और जब सम्पूर्ण निर्जरा हो तब मोक्ष होता है-ऐसे धर्म का स्वरूप कहा है। जीव के जब शुभ परिणाम होते हैं तब इस धर्म की प्राप्ति का भी अवसर होता है तथा मोह के क्षोभ की एकदेश हानि होती है इसलिए शुभ परिणाम को भी उपचार से धर्म कहते हैं परन्तु जो केवल शुभ परिणाम ही को धर्म मानकर संतुष्ट हो जाते हैं उनको धर्म की प्राप्ति नहीं होती-यह जिनमत का उपदेश है।।१३।। उत्थानिका 營業养养崇明藥崇崇崇勇兼崇勇攀事業事業事業蒸蒸勇崇勇樂 आगे कहते हैं कि 'जो पूण्य ही को धर्म जानकर श्रद्धान करते हैं उनके वह केवल भोग का ही निमित्त होता है, कर्म के क्षय का नहीं' :सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि। पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। 8४।। श्रद्धा-प्रतीति-स्पर्श-रुचि, जो करें पुण्य में धर्म की। हो पुण्य भोग निमित्त उनका, कर्मक्षय का निमित्त ना।।8४ ।। अर्थ जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर श्रद्धान करते हैं, प्रतीति करते हैं, रुचि करते हैं तथा स्पर्श करते हैं उनके वह पुण्य भोग का ही निमित्त होता है जिससे वे स्वर्गादि के भोग पाते हैं। उनका वह पुण्य कर्म के क्षय का निमित्त नहीं होता-यह प्रकट जानो। *** * *55555
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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