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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द Dadle ADOG) ROOF Dod Deolo DoG/ Doc तो संसार ही में रखते हैं और कदाचित् यदि संसार के भोगों की प्राप्ति भी कराते हैं तो भी जीव फिर भोगों में लीन होकर एकेन्द्रियादि पर्याय पाता है तथा नरक को पाता है। ऐसे अन्य धर्म तो नाम मात्र हैं इसलिए उत्तम जिनधर्म को ही जानना ।।२।। उत्थानिका 帶柴柴步骤步骤業禁藥業業助兼業助業樂業%崇明崇勇崇崇 आगे शिष्य पूछता है कि 'जिनधर्म उत्तम कहा सो धर्म का क्या स्वरूप है ?' अब आचार्य धर्म का स्वरूप कहते हैं कि 'वह ऐसा है' :पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो।। 8३।। हो पुण्य पूजादि में व्रत में, कहा जिन शासन विर्षे । जो मोह-क्षोभ विहीन आतम, भाव सो ही धर्म है।।३।। अर्थ जिनशासन में जिनेश्वर देव ने ऐसा कहा है कि पूजा आदि में और व्रत सहित होने में तो 'पुण्य' है तथा मोह के क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है सो 'धर्म' है। भावार्थ लौकिकजन तथा कई अन्यमती कहते हैं कि 'पूजा आदि शुभक्रियाओं में और व्रत क्रिया सहित होने में धर्म होता है' सो ऐसा नहीं है। जिनमत में जिनभगवान ने ऐसा कहा है कि पूजादि और व्रतों सहित होना सो तो 'पुण्य' है, वहाँ पूजा और 'आदि' शब्द से दान, भक्ति, वंदना तथा वैयाव त्य आदि लेना सो ये तो देव-गुरु-शास्त्र के लिये होते हैं और जो उपवास आदि व्रत हैं वे शुभ क्रियाएँ हैं, इनमें जो आत्मा का राग सहित शुभ परिणाम होता है उससे क्योंकि पुण्य कर्म उत्पन्न होता है जिसका कि फल स्वर्गादि के भोगों की प्राप्ति है इसलिए उन्हें पुण्य कहते हैं। __ मोह के क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम होता है उसे धर्म कहा है। यहाँ 崇明崇崇明崇明戀戀戀戀戀戀樂業兼功兼第 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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