SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड़ . .at स्वामी विरचित Westerest आचार्य कुन्दकुन्द Doo/N FDOG) looct Des/ Doollo 帶幾步骤步骤步骤業業樂業業助兼業助業兼藥%崇崇勇崇崇 बत्तीस अंतराय टले-ऐसा यथाविधि विहार करके भिक्षाभोजन करना। ऐसा तो बाह्य लिंग है तथा भाव पूर्व में जैसा कहा है वैसा होता है-ऐसा दो प्रकार का शुद्ध जिनलिंग कहा है। अन्य प्रकार जैसा श्वेताम्बरादि कहते हैं वैसा जिनलिंग नहीं होता है। 8१।। उत्थानिका आगे जिनधर्म की महिमा कहते हैं :जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुवराण गोसीरं। तह धम्माणं पवरं जिणधम्म भाविभवमहणं' ।। 8२।। ज्यों श्रेष्ठ हीरा रत्न में, बावनां चंदन व क्ष में। धर्मों में भावीभवमथन, जिनधर्म त्यों ही श्रेष्ठ है। 8२।। अर्थ जैसे रत्नों में प्रवर-श्रेष्ठ उत्तम 'वज' अर्थात हीरा तथा 'तरुवर' अर्थात बड़े वक्षों में प्रवर-श्रेष्ठ उत्तम 'गोसीर' अर्थात बावन चन्दन होता है वैसे धर्मों में उत्तम, प्रवर-श्रेष्ठ जिनधर्म है। कैसा है जिनधर्म-'भाविभवमथनं' अर्थात् आगामी संसार का मथन करने वाला है जिससे कि मोक्ष होता है। भावार्थ 'धर्म' ऐसा सामान्य नाम तो लोक में प्रसिद्ध है और लोक अनेक प्रकार से क्रियाकांडादि को धर्म जानकर सेवन करता है परन्तु परीक्षा करने पर मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला जिनधर्म ही है, अन्य सब संसार के कारण हैं। वे क्रियाकांडादि 崇崇先崇崇崇崇崇崇崇明崇勇兼事業樂業樂業事業事業 टि-1. पं0 जयचंद जी' ने 'भावि' पद को 'भवमहणं' का विषण बनाकर 'भावि' का अर्थ 'आगामी' किया है जबकि 'श्रु0 टी0' में 'भावि भवमहणं' (सं0-भावय भवमथनम्)-ऐसे दो पद देकर अर्थ किया है-'भवमथनम्' अर्थात् 'संसार के विच्छेदक' ऐसे जिनधर्म की तुम 'भावय' अर्थात् 'भावना करो, रुचि-श्रद्धा करो।' 步骤業樂業崇明藥業 業業藥業業業助業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy