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अष्ट पाहुड़ .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खं'। भावं भावियपुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ।। 8१।।
जो पाँचविध पट त्याग-भिक्षा, द्विविध संयम-भूशयन । भावित है पूर्व में भाव जिसमें, शुद्ध जिनलिंग वह विमल ।।१।।
अर्थ जिसमें पाँच प्रकार के वस्त्र का त्याग, भूमि पर शयन, दो प्रकार का संयम, और भिक्षाभोजन है तथा 'भावितपूर्व' अर्थात् पहिले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी शुद्ध आत्मा का रूप परद्रव्य से भिन्न भाया हुआ अर्थात् बार-बार भावना से अनुभव किया हुआ भाव है-ऐसा 'निर्मल' अर्थात् बाह्य मल रहित और 'शुद्ध' अर्थात् अन्तर्मल रहित जिनलिंग होता है।
भावार्थ लिंग द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है उसमें द्रव्य में तो बाह्य त्याग की अपेक्षा है जिसमें ये चार बातें पाई जाती हैं-(१) अंडज' अर्थात् रेशम से, 'बोडज' अर्थात् कपास से, 'रोमज' अर्थात् ऊन से, 'वल्कज' अर्थात् व क्ष की त्वचा-छाल से और 'चर्मज' अर्थात् म ग आदि के चर्म से उपजे हुए-ऐसे इन पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग। यहाँ ऐसा न जानना कि इनके सिवाय अन्य वस्त्र ग्राह्य हैं, ये उपरोक्त तो उपलक्षण मात्र कहे हैं, यहाँ तो सर्व ही वस्त्र मात्र का त्याग जानना, (२)भूमि में सोना-बैठना जिसमें काष्ठ-तण भी गिन लेना, (३)इन्द्रिय और मन का वश करना और छह काय के जीवों की रक्षा करना-ऐसा दो प्रकार का संयम तथा (४)जिसमें क त-कारित-अनुमोदना का दोष नहीं लगे और छियालीस दोष एवं
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| टि0-1. 'मु० प्रति' में यहाँ भिक्खू' पाठ पाया जाता है परन्तु मूल प्रति' का 'भिक्खं' पाठ ही उपयुक्त
जंचता है। 'म) व श्रु0 टी0' में सम्बोधन सूचक भिक्खू ! (सं-भिक्षो ! ) |ब्द दिया गया है। 'श्रु0 टी0' में लिखा है- भिक्खू' पद को सम्बोधनान्त' मानकर हे तपस्विन् !' अर्थ करना चाहिए अथवा 'प्रथमान्त' मानकर भिक्षा भोजन करता हुआ एवं उद्दण्ड चर्या से भ्रमण करता हुआ भिक्षु जिनलिंग कहलाता है'-ऐसा अर्थ करना चाहिए।
ANT५.८५) 步骤業樂業崇明藥
崇崇明藥迷藥業或業