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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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बारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भावि तिविहेण। धरहि मणमत्तदुरयं णाणांकुसएण मुणिपवर !।। 8०।। बारह प्रकार का तप क्रिया, तेरह भा मन-वच-काय से। हे मुनिप्रवर! मन मत्त गज को, ज्ञान अंकुश से वश करो।।80||
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अर्थ हे मुनिप्रवर अर्थात् मुनियों में श्रेष्ठ ! तू मन, वचन और काय से बारह प्रकार के तप और तेरह प्रकार की क्रियाओं को भा और ज्ञान रूप अंकुश से मन रूपी मतवाले हाथी को धारण कर अर्थात् अपने वश में रख।
भावार्थ यह मन रूपी हाथी मदोन्मत्त के समान है सो तपश्चरण और क्रियादि सहित ज्ञान रूपी अंकुश ही से वश में होता है इसलिए यह उपदेश है। बारह तपों के नाम ये हैं-१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. व त्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्तशय्यासन और ६. कायक्लेश-ये तो छह प्रकार का बाह्य तप है तथा १. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयाव त्य, ४. स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान-ये छह प्रकार का अभ्यन्तर तप है, इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानना। तेरह क्रियाएँ इस प्रकार हैं-पंचपरमेष्ठी को नमस्कार रूप तो पाँच, छह आवश्यक क्रिया, एक निषेधिका और एक आसिका। इस प्रकार भाव शुद्ध होने के कारण कहे ।।80।।
उत्थानिका
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आगे अब सामान्यता से द्रव्य-भाव रूप जिनलिंग का स्वरूप कहते हैं :
टि0-1. मूल, मु0 व श्रु0टी0'-सबमें ही यहाँ 'दुरयं' |ब्द की जगह 'दुरियं' (सं०-दुरितं) पाठ था
परन्तु वी0 प्रति' में 'हस्ती' अर्थ वाचक 'दुरयं' (सं0-द्विरदं)-यह [द्ध पाठ मिल गया अत: यहाँ उसे ही स्वीकार किया गया है। 'म0 टी0' में दुरयं' के स्थान पर 'दुरितं' पाठ देकर 'धरहि मणमत्त दुरितं' पद का अर्थ किया है-'मद से मतवाले हाथी की दुरित-दुर्गमन अर्थात् खोटी चाल के समान जिसकी चाल (परिणति) दूषित है-ऐसे मन को तू अपने व
में कर।' 「業業禁禁禁禁藥騰騰崇明崇明崇明崇崇明