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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित 6002. WisesWANING आचार्य कुन्दकुन्द आप ADOO FDOG) . Dod ADeo Doc ADOGI Dool 添馬添馬添先崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 विसयविरत्तो सवणो छद्दसवरकारणाई भाऊण। तित्थयर णामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण।। ७१।। विषयों से विरत जो श्रमण भा, वह सोलहकारण भावना। थोड़े ही काल में बाँधता, है तीर्थकर नामक प्रक ति ।।७9 ।। अर्थ जिसका चित्त इन्द्रियों के विषयों से विरक्त है ऐसा 'श्रमण' अर्थात् मुनि है सो सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर नामक नामकर्म की प्रक ति को थोड़े ही काल में बाँधता है। भावार्थ विषयों से विरक्त भावयुक्त होकर यदि सोलहकारण भावनाओं को भावे तो अचिन्त्य है माहात्म्य जिसका-ऐसी तीन लोक से पूज्य तीर्थंकर नामक प्रक ति को बाँधता है और उसको भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है-यह भाव का माहात्म्य है सोलहकारण भावनाओं के नाम ये हैं-दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयाव त्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व। इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानना। इनमें सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न हो और पन्द्रह भावना का व्यवहार हो तो कार्यकारी नहीं है और यह हो तो पन्द्रह भावना का कार्य यह ही कर ले-ऐसा जानना।।७।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे भाव की शुद्धता निमित्त आचरण कहते हैं : 勇攀業業崇崇崇崇崇崇崇崇明崇明崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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