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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
आत्मा का स्वरूप ही है। इस प्रकार हेय उपादेय को जानकर त्याग-ग्रहण
करना अर्थात् जो कल्याणकारी हो उसे अंगीकार करना - यह जिनदेव का उपदेश है ।।७६-७७ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जिनशासन का ऐसा माहात्म्य है' :पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो ।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीओ ।। ७8 ।।
गल गई मान कषाय, प्रगलित मोह से समचित्त जो ।
वह जीव त्रिभुवनसार बोधि, पाता जिनशासन विषै । । ७8 ।।
अर्थ
यह जीव है सो जिनशासन में तीन भुवन में सार ऐसी 'बोधि' अर्थात् रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग
को पाता है। कैसा होता हुआ पाता है- प्रगलितमानकषाय' अर्थात् प्रकर्षता से गल गई है
मानकषाय जिसकी अतः किसी परद्रव्य से अहंकार रूप गर्व नहीं करता है । और कैसा होता
हुआ पाता है—‘प्रगलित' अर्थात् गल गया है- नष्ट हुआ है मिथ्यात्व का उदय रूप मोह जिसका
इसी कारण समचित्त है अर्थात् परद्रव्य में ममकार रूप मिथ्यात्व और इष्ट-अनिष्ट बुद्धि रूप राग-द्वेष उसके नहीं है। I
भावार्थ
मिथ्याभाव और कषायभाव का स्वरूप अन्य मतों में यथार्थ नहीं है, यह कथनी इस
वीतराग रूप जिनमत में ही है इसलिए यह जीव तीन भुवन में सार मिथ्यात्व तथा कषाय
के अभाव रूप मोक्षमार्ग को जिनमत के सेवन से ही पाता है, अन्यत्र नहीं । । ७8 ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जिनशासन में ऐसा मुनि ही तीर्थंकर प्रक ति बाँधता है' :
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