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________________ 秦業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ उत्थानिका आगे भावों के विशेष को कहते हैं स्वामी विरचित भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं । -- असुहंच अट्टरुद्दं सुहधम्मं जिणवरिंदेहिं ।। ७६ ।। शुभ-अशुभ एवं शुद्ध जानो, भाव तीन प्रकार के । हैं अशुभ आरत- रौद्र शुभ हैं, धर्म जिनवर ने कहा । ७६ ।। सुद्धं सुद्धसहावं 1 अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं । इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ।। ७७ ।। जो शुद्ध भाव सो शुद्ध अपना, आपमें ही जानना । इनमें जो श्रेष्ठ सो आचरो, यह जिनवरों का है वचन । ७७ ।। अर्थ जिनवर देव ने भावों को इन तीन प्रकार का कहा है- शुभ, अशुभ और शुद्ध । इनमें अशुभ तो आर्त-रौद्र ध्यान हैं, शुभ है सो धर्मध्यान है तथा जो शुद्ध भाव है सो शुद्ध है जो कि अपना आपमें ही है-ऐसा जिनवर देव ने कहा है सो जानना। इनमें जो कल्याण रूप हो उसको अंगीकार करो । भावार्थ भगवान ने भाव तीन प्रकार के कहे हैं- शुभ, अशुभ और शुद्ध । इनमें अशुभ तो आर्त- रौद्र ध्यान हैं सो तो अति मलिन हैं अतः त्याज्य ही हैं। 卐 धर्मध्यान है सो यह कथंचित् उपादेय है क्योंकि मंद कषाय रूप विशुद्धता से शुद्ध भाव की प्राप्ति है तथा शुद्ध भाव है सो सर्वथा उपादेय है क्योंकि यह ५-८१ टि0- 1. 'वी0 प्रति' में सुक्कं सुद्धसहावं (सं०- क्लं युद्धस्वभावं ) पाठ है जिसका अर्थ है कि 'युद्धभाव क्लध्यान है।' गाथा 76 में अशुभ को आर्त - रौद्र ध्यान व शुभ को धर्मध्यान कहा और यहाँ शुद्ध भाव को शुक्लध्यान कहा सो 'वी० प्रति०' का पाठ ऊपर के पाठ से ज्यादा प्रकरणसंगत है। शुभ है सो 卐卐卐 翬糕糕糕糕糕糕糕糕卐 ≡ 縢糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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