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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOO ADOG) CO Dool ADOGI Doole Dod है सो पापस्वरूप है, तिर्यंच गति का स्थानक और कर्ममल से मलिन चित्त वाला है। भावार्थ जो भाव से शुद्ध है वह तो स्वर्ग-मोक्ष का पात्र है और जो भाव से मलिन है वह तिर्यंचगति में निवास करता है।।७४ ।। 禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁勇 आगे फिर भाव के फल का माहात्म्य कहते हैं :खयरामरमणुयाणं अंजलिमालाहिं संथुया विउला। चक्कहररायलच्छी लभइ बोही सुभावेण ।। ७५।। नर-अमर-विद्याधर करांजलि, माला से संस्तुत विपुल। पा चक्रवर्ती राज्य लक्ष्मी, बोधि पावे सुभाव से । ७५ ।। अर्थ 'सुभाव' अर्थात् भले भाव से, मंद कषाय रूप विशुद्ध भाव से चक्रवर्ती आदि राजाओं की 'विपुल' अर्थात बड़ी लक्ष्मी प्राप्त होती है। कैसी है लक्ष्मी-'खचर' अर्थात् विद्याधर, 'अमर' अर्थात् देव और 'मनुज' अर्थात् मनुष्य-इनकी 'अंजलिमाला' अर्थात् हाथों की अंजुलि की पंक्ति से संस्तुत-नमस्कारपूर्वक स्तुति करने योग्य है तथा उससे केवल यह लक्ष्मी ही नहीं प्राप्त होती परन्तु 'बोधि' अर्थात् रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग की भी प्राप्ति होती है। भावार्थ विशुद्ध भावों का यह माहात्म्य है।।७५।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 टि0-1. श्रु0 टी0' में गाथा की द्वितीय पंक्ति में आए हुए इस 'सुभावेण' पद के स्थान पर 'ण भव्वणुआ' पाठ देकर पूरी गाथा का अर्थ एकदम भिन्न रूप से इस प्रकार किया है-'विद्याधर, देव और मनुष्यों के द्वारा संस्तुत चक्रवर्ती व अन्य राजाओं की लक्ष्मी तो इस जीव के द्वारा कई बार प्राप्त की जाती है परन्तु भव्यों के द्वारा स्तुत रत्नत्र्य की लक्ष्मी प्राप्त नहीं की जाती अर्थात् रत्नत्र्य की प्राप्ति दुर्लभ है।' 75 | 崇明崇崇崇明崇明崇明 、崇崇崇明崇崇崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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