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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित ।
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आचार्य कुन्दकुन्द
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नाचे तब शोभा को पावे परन्तु यदि नग्न होकर नाचे तब तो हास्य को ही पावे वैसे केवल द्रव्य से नग्न हास्य का स्थानक है।७१।।
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आगे इसी अर्थ के समर्थन रूप कहते हैं कि 'द्रव्यलिंगी जिनमार्ग में जैसी
बोधि-समाधि कही है वैसी नहीं पाते हैं :जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।। ७२।।
जो राग परिग्रह युक्त जिनभावनाविरहित द्रव्यमुनि। वे विमल जिनशासन विर्षे, नहीं पाते बोधि-समाधि को।।७२।।
अर्थ जो मुनि 'राग' अर्थात् अभ्यन्तर परद्रव्य से प्रीति रूप 'संग' अर्थात् परिग्रह से युक्त हैं तथा 'जिनभावना' अर्थात् शुद्ध स्वरूप की भावना से रहित हैं वे यद्यपि द्रव्य से निर्ग्रन्थ हैं तो भी निर्मल जिनशासन में 'समाधि' अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान और 'बोधि' अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग को नही पाते हैं।
भावार्थ द्रव्यलिंगी अभ्यन्तर का राग छोड़ते नहीं और परमात्मा की भावना भाते नहीं तब कैसे तो मोक्षमार्ग को पावें तथा कैसे समाधिमरण को पावें !|७२।।
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आगे कहते हैं कि 'पहले मिथ्यात्व आदि दोष छोड़कर भाव से अन्तरंग नग्न
हो, पीछे द्रव्यमुनि होवे-यह मार्ग है' :
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