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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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के बिना बाह्य वेष धारण करना योग्य नहीं है ||७०।।
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आगे कहते हैं कि 'भाव रहित नग्न मुनि हास्य का स्थान है :
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण।। ७१।।
है धर्म में नहीं वास, दोषावास इक्षुपुष्प सम। नटश्रमण निष्फल निर्गुणी, है नग्नवेषी वह मुनि ।।७१।।
अर्थ 'धर्म' अर्थात अपना स्वभाव तथा दशलक्षणस्वरूप उसमें जिसका वास नहीं है वह जीव दोषों का आवास है अथवा उसमें दोष बसते हैं। वह ऐसे गन्ने के फूल के समान है जिसमें कोई भी फल और कुछ भी सुंगधादि गुण नहीं होते। ऐसा मुनि नग्न रूप में 'नटश्रमण' अर्थात् नाचने वाले भांड के स्वाग सारिखा होता है।
भावार्थ जिसका धर्म में वास नहीं उसमें क्रोधादि दोष ही बसते हैं और यदि दिगम्बर रूप धारण करे तो वह मुनि इक्षु के फूल के समान निर्गुण और निष्फल है। ऐसे मुनि के मोक्ष रूपी फल नहीं लगता और सम्यग्ज्ञानादि गुण उसमें नहीं हैं अतः नग्न हुए भांड का सा स्वांग दीखता है। सो भी भांड यदि नाचे तो श्रृंगारादि करके
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टि0-1. यहाँ जो ऐसा कहा कि 'भाव द्ध बिना बाह्य भेष धारना योग्य नहीं है।' यही भाव भावपाहुड़
में गाथा 49 भा०, 73 अर्थ, भा0 व 90 और 112 में भी दिया गया है पर इसके साथ हमें गा0 34 भा० को नहीं भूलना चाहिये जिसके भावलिंग के बिना भी पहले द्रव्यलिंग धारने का निषेध करने को दोष बताया है। स्याद्वादी जैनागम की अलग-अलग स्थल की अलग-अलग
विवक्षा को हमें यथावत् समझ कहीं पर भी एकान्त को ग्रहण नहीं करना चाहिये। 2. 'म0 टी0' में णिप्फल णिग्गुणयारो-ऐसे दो पद दिए हैं एवं णिग्गुणयारो' की सं0-निर्गुणचार:' देकर अर्थ किया है कि उस नटश्रमण का आचार निर्गुण है अर्थात् वह गुण न्य-परिणामविगुद्धि
न्य बाह्य चारित्र का पालन करने वाला है।' 「業業禁禁禁禁藥騰崇明禁禁禁禁禁