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________________ 卐業業業業卐業卐業卐業卐業業卐 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित मुनिपना-'पैशुन्य' अर्थात् दूसरे के दोष कहने का स्वभाव, 'हास्य' अर्थात् अन्य की हँसी करना, 'मत्सर' अर्थात् अपनी समानता वाले से ईर्ष्या रखकर उसको नीचा गिराने की बुद्धि और 'माया' अर्थात् कुटिल परिणाम आदि भाव जिसमें बहुत प्रचुर हैं और इसी कारण से कैसा है- पाप से मलिन और 'अयश' अर्थात् अपकीर्ति का भाजन है। भावार्थ पैशुन्य आदि पापों से मैले नग्नपने स्वरूप मुनिपने से क्या साध्य है, उल्टे अपकीर्ति का भाजन होकर व्यवहार धर्म की हँसी कराने वाला होता है इसलिए भावलिंगी होना योग्य है- यह उपदेश है । । ६१ ।। उत्थानिका आगे 'ऐसा भावलिंगी होना' - यह उपदेश करते हैं पयडय जिणवरलिंगं अब्भंतरभावदोसपरिसुद्धो । भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मइलियइ ।। ७० ।। हो शुद्ध अन्तर भावमल से, कर प्रकट जिनलिंग को । हो बाहिरी संग से मलिन, यदि भावमल से युक्त हो । ७० ।। अर्थ हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध 'जिनवरलिंग' अर्थात् बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग प्रकट कर। भावशुद्धि के बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा क्योंकि भावमल सहित जीव बाह्य के परिग्रह से मलिन हो जाता है । भावार्थ यदि भावों को शुद्ध करके द्रव्यलिंग धारण करे तब तो भ्रष्ट नहीं होता और यदि भाव मलिन हों तो बाह्य में भी परिग्रह की संगति से द्रव्यलिंग को भी बिगाड़ लेता है इसलिए प्रधान रूप से भावलिंग ही का उपदेश है। भावशुद्धि ५-७६ 卐 卐卐糕糕卐業業業卐業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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