SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द FOCE Lucal, ROOF HDOC/ Deel ADDA नग्न-जिनभावना से रहित है। भावार्थ __ 'जिनभावना जो सम्यग्दर्शन भावना उससे रहित जो जीव है वह नग्न भी रहे तो भी 'बोधि' अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को क्योंकि नहीं पाता इसी कारण संसार-समुद्र में भ्रमता हुआ दुःख ही को पाता है तथा वर्तमान में भी जो मनुष्य नग्न होता है वह दुःख ही को पाता है, सुख तो जो भावमुनि नग्न हों वे ही पाते हैं।।६८।। उत्थानिका 添添添添添添樂樂樂樂樂樂事業助兼崇明 आगे इसी अर्थ को द ढ़ करने के लिए कहते हैं कि 'जो द्रव्यनग्न होकर मुनि ___ कहलाता है उसका अपयश होता है' :अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण । पेसुण्ण हास मच्छर मायाबहुलेण सवणेण ।। ६७।। क्या साध्य है इस अयशभाजन, पापयुत नग्नत्व से। बहु हास्य, मत्सर, पिशुनता, मायाभरित श्रमणत्व से ।।६9 ।। अर्थ हे मुने ! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपने से क्या साध्य है ! कैसा है वह 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 टि0-1. 'म0टी0' में 'कर्मजयनीला रत्नत्र्यात्मक विद्धात्मस्वरूप चिन्तनरूप भावना' को 'जिनभावना' कहा है। 2. 'श्रु0 टी0' में इस पद का अर्थ 'पापवन्मलिन' करके कहा है कि तेरा यह नाग्न्य वेष पाप के समान मलिन है' अथवा 'पाप' को स्वतन्त्र सम्बोधन पद बनाकर यह भी अर्थ हो सकता है कि 'अरे पाप ! अरे पापमूर्ति ! तेरा यह नाग्न्य पद अतिचार, अनाचार, अतिक्रम, व्यतिक्रम से सहित होने के कारण मलिन है, इससे तुझे क्या प्राप्त होगा !' 3. 'म0 टी0' में इस ब्द की सं0-'स्रवणेन' करके अर्थ किया है कि वह नग्नपणां-द्रव्यलिंग कर्मों के आस्रव का निमित्तकारण है अथवा भावास्रव रूप है।' C. GHIMRAPA५-७५ 步骤業樂業樂業、 崇漲漲漲漲勇崇明業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy