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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
स्वभाव की अपेक्षा से निषेध रूप ही जीव है और चेतनागुण कहा सो यह जीवका विधि रूप कहा । सो निषेध की अपेक्षा तो वचन के अगोचर जानना और विधि की अपेक्षा स्वसंवेदनगोचर जानना - इस प्रकार जीव का स्वरुप जानकर अनुभवगोचर करना। यह गाथा समयसार और प्रवचनसार ग्रंथ में भी है वहाँ इसका व्याख्यान टीकाकार ने विशेष रूप से कहा है सो जानना । । ६४ ।।
उत्थानिका
आगे जीव का स्वभाव ज्ञानस्वरूप भाना कहा सो वह ज्ञान कितने प्रकार का भाना सो कहते हैं
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भावह पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्घं ।
भावणभावियसहियं दिवसिवसुहभायणो होइ ।। ६५ । । अज्ञाननाशक ज्ञान पंच, प्रकार भाओ शीघ्र ही ।
भावनाभावित भावयुत, सुर- मोक्ष सुख का पात्र हो । । ६५ ।।
अर्थ
हे भव्यजन ! तू यह ज्ञान पाँच प्रकार का भा । कैसा है यह ज्ञान-अज्ञान का नाश करने वाला है। कैसा होकर भा-भावना से भावित जो भाव उस सहित होकर भा। और कैसे भा - शीघ्र भा जिससे तू 'दिव' अर्थात् स्वर्ग और 'शिव' अर्थात् 'मोक्ष' उसका भाजन हो ।
भावार्थ
ज्ञान यद्यपि जाननस्वभाव से एक प्रकार का है तो भी कर्म के क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा पाँच प्रकार का हुआ है, उसमें भी मिथ्यात्व भाव की अपेक्षा से मति, श्रुत और अवधि-ये तीन मिथ्या कहे गये हैं सो मिथ्याज्ञान का अभाव करने के लिए मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान स्वरूप इन पाँच प्रकार का सम्यग्ज्ञान जानकर भाना। परमार्थ के विचार से ज्ञान एक ही प्रकार का है। यह ज्ञान की भावना स्वर्ग - मोक्ष की दाता है । । ६५ ।।
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