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अष्ट पाहु
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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1000
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उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जीव का स्वरूप वचन के अगोचर है और अनुभवगम्य है सो
ऐसा है' :अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणमसदं । जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। ६४।। है अरस-रूप-अगंध-शब्द, अव्यक्त-चेतनगुणमयी। औ अलिंगग्रहण है जीव अरु, संस्थान नहिं निर्दिष्ट है।।६४ ।।
अर्थ
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हे भव्य ! तू जीव का स्वरूप ऐसा जान। कैसा है-१.'अरस' अर्थात् पाँच प्रकार | के रस से रहित है, २.'अरूप' अर्थात् पाँच प्रकार के रूप से रहित है, ३.अगंध | अर्थात् दो प्रकार की गंध से रहित है, ४.'अव्यक्त' अर्थात् इन्द्रियों के गोचर व्यक्त
नहीं है तथा ५.जिसमें चेतना गुण है, ६.'अशब्द' अर्थात् शब्द से रहित है, ७.'अलिंगग्रहण' अर्थात् स्त्री-पुरुष आदि किसी अन्य चिन्ह से ग्रहण में नहीं आता तथा ८.'अनिर्दिष्टसंस्थान' अर्थात् चौकोर एंव गोल आदि जिसका कोई आकार कहा नहीं जाता-ऐसा जीव जानो।
भावार्थ रस, रूप, गंध और शब्द ये तो पुद्गल के गुण हैं, इनका निषेध रूप जीव कहा तथा जो अव्यक्त, अलिंगग्रहण एवं अनिर्दिष्टसंस्थान कहा सो ये भी पुदगल के
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1. समयसार में यह गाथा इसी पाठ के स्थान परकार अगली 65 प्रथम पंक्ति में
टि0-1. समयसार जी' में क्रमांक 49 व नियमसार जी' में क्रमांक 43 गाथा भी यही है।
'वी0 प्रति' में यह गाथा इसी भावपाहुड़ में क्रमांक 149 पर दोबारा आई है परन्तु वहाँ पर इस गाथा के चेयणागुणमस' पाठ के स्थान पर चेयणाइ णिहणो य' एवं 'जाणमलिंगग्गहणं' के स्थान पर 'दंसणणाणुवओगे' पाठ है। इसी प्रकार अगली 65 नं0 की गाथा भी वी0 प्रति' में इसी भावपाहुड में क्रमांक 98 पर दोबारा दी गई है पर वहाँ प्रथम पंक्ति में 'सिग्छ' की जगह खिप्पं' (सं0-क्षिप्रं) एवं दूसरी पंक्ति में 'सहियं' की जगह 'भविओ' पाठ है। इस प्रकार वहाँ यहाँ की यह चौंसठ व पैंसठवीं गाथा कुछ ब्दों की भिन्नता सहित दो बार दी जाने से
उसमें भावपाहुड की कुल गाथाओं की संख्या 165 के स्थान पर 167 हो गई है। 崇明崇崇明崇勇聽聽聽聽聽兼業助兼崇明