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________________ 卐業卐業卐業卐業業卐業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित कि 'ज्ञान को प्रधान का धर्म और जीव को उदासीन नित्य चेतना रूप मानता है' उसका तथा नैयायिकमती जो कि 'गुण-गुणी का भेद मानकर जीव से ज्ञान को सर्वथा भिन्न मानता है' उसका निराकरण है । ऐसे जीव के स्वरूप का भाना कर्म के क्षय के निमित्त होता है, अन्य प्रकार से भाया हुआ मिथ्या भाव है । । ६२ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो पुरुष जीव का अस्तित्व मानते हैं वे सिद्ध होते हैं : जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।। ६३ ।। है जीव का सद्भाव जिनके, नहिं अभाव है सर्वथा । वे सिद्ध होते देहविरहित, वचनविषयातीत रे । । ६३ ।। अर्थ जिन भव्य जीवों के जीव नामक पदार्थ सद्भाव रूप है और सर्वथा अभावस्वरूप नहीं है वे भव्य जीव देह से भिन्न सिद्ध होते हैं। कैसे हैं वे सिद्ध-वचन के अगोचर | भावार्थ जीव है सो द्रव्यपर्याय स्वरूप है सो कथंचित् अस्तिरूप है, कथंचित् नास्ति रूप है, इनमें पर्याय अनित्य है । इस जीव के कर्म के निमित्त से मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक पर्याय होती है, उसका कदाचित् अभाव देखकर जो जीव का सर्वथा अभाव मानता है उसे संबोधने को ऐसा कहा है कि जीव का द्रव्यद ष्टि से नित्य स्वभाव है। पर्याय का अभाव होने पर जो सर्वथा अभाव नही मानते हैं वे देह से भिन्न होकर सिद्ध होते हैं जो कि सिद्ध वचनगोचर नहीं हैं, और जो देह को नष्ट होते देखकर जीव का सर्वथा नाश मानते हैं वे मिथ्याद ष्टि हैं, वे सिद्ध कैसे होंगे अर्थात् नहीं होंगे।।६३।। ५-७० 卐卐卐 ※縢糕糕糕糕糕糕糕糕】
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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