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________________ 卐卐業卐業卐業卐業卐業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित जो जीव जीवस्वभाव को, भावे सुभाव से युक्त हो I कर जरा-मरण का नाश वह, पावे प्रकट निर्वाण को । । ६१ । । अर्थ जीव की भावना करता हुआ जो भव्य पुरुष जीव का स्वभाव जानकर भले भाव से संयुक्त हुआ उसे भाता है वह जरा-मरण का विनाश करके प्रकट निर्वाण को पाता है। भावार्थ 'जीव' ऐसा नाम तो लोक में प्रसिद्ध है परन्तु इसका स्वभाव क्या है - ऐसा लोक को यथार्थ ज्ञान नहीं है और मतान्तर के दोष से इसका स्वरूप विपरीत हो रहा है इसलिए इसका यथार्थ स्वरूप जानकर जो भाते हैं वे संसार से निवृत्त होकर मोक्ष पाते हैं । । ६१ । । उत्थानिका OD आगे जीव का स्वरूप जैसा सर्वज्ञदेव ने कहा है सो कहते हैं : जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ । सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकारणनिमित्ते ।। ६२ ।। जो चेतना से युक्त, ज्ञान स्वभावमय जिन ने कहा । उस जीव को जानो करम का, नाशकरण निमित्त तुम ||६२ ।। अर्थ जिन सर्वज्ञदेव ने जीव का स्वरूप ऐसा कहा है कि 'जीव है सो चेतना सहित है तथा ज्ञान स्वभावी है।' ऐसे जीव की भावना भाना कर्म क्षय के निमित्त जानना । भावार्थ जीव के 'चेतना सहित' विशेषण से तो चार्वाक् जो कि 'जीव को चेतना सहित नहीं मानता है' उसका निराकरण है और 'ज्ञान स्वभाव' विशेषण से सांख्यमती जो (५-६६ 卐卐卐 *縢糕糕糕糕糕糕糕卐縢寊糕糕糕縢縢
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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