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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ 'ज्ञान-दर्शन रूप नित्य एक आत्मा है सो तो मेरा रूप है, तादात्म्यस्वरूप है और अन्य जो परद्रव्य हैं वे मुझसे बाह्य हैं, वे सब संयोगस्वरूप हैं, भिन्न हैं'-यह भावना भावलिंगी मुनि के होती है।।५।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'यदि मोक्ष चाहते हो तो ऐसी आत्मा की भावना करो' :
भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव। लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छइ सासयं सुक्खं ।। ६० ।।
तुम भावशुद्धि से भाओ रे, सुविशुद्ध निर्मल आत्म को । गति चार को यदि छोड़ शीघ्र ही, चाहते सुख शाश्वता ।।६० ।।
अर्थ हे मुनिजनों ! यदि चार गति रूप संसार से छूटकर शीघ्र शाश्वत सुख रूप मोक्ष तुम चाहते हो तो भाव से शुद्ध जैसे हो वैसे अतिशय से विशुद्ध निर्मल आत्मा को भाओ।
भावार्थ यदि संसार से निवत्त होकर मोक्ष चाहते हो तो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित शुद्ध आत्मा को भाओ-ऐसा उपदेश है।।६० ।।
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आगे कहते हैं कि 'जो आत्मा के स्वभाव को जानकर उसकी भावना भाता है
सो वह मोक्ष पाता है' :जो जीवं भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो।
सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं।। ६१।। 步骤業崇勇攀崇明藥業 崇崇明藥業業業助業
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