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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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में भी आत्मा ही है, जो ३.चारित्र है वह ज्ञान में स्थिरता का होना है सो इसमें भी आत्मा ही है, ४.प्रत्यारव्यान आगामी परद्रव्य का सम्बन्ध छोड़ना है सो इस भाव ' में भी आत्मा ही है, ५.संवर परद्रव्य के भाव रूप न परिणमना है सो इस भाव में भी मेरे आत्मा ही है तथा ६.योग नाम एकाग्र चिंता रूप समाधिध्यान का है सो इस भाव में भी आत्मा ही है।'
भावार्थ ज्ञानादि कुछ न्यारे पदार्थ तो हैं नहीं, आत्मा ही के भाव हैं, संज्ञादि के भेद से वे न्यारे कहे जाते हैं, वहाँ अभेद द ष्टि से देखें तो ये सारे भाव आत्मा ही हैं इसलिए भावलिंगी मुनि अपने को इनसे अभेद रूप अनुभव करते हैं। भेद रूप | अनुभव में तो विकल्प हैं और निर्विकल्प अनुभव से सिद्धि है-यह जानकर वे : ऐसा करते हैं। ५४।।
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उत्थानिका
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आगे इसी अर्थ को द ढ़ करते हुए कहते हैं :
अनुष्टुप छंद एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्षणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। ५७।। मेरा है शाश्वत एक दर्शन, ज्ञान लक्षण जीव जो। संयोग लक्षण भाव शेष जो, सभी मुझसे बाह्य हैं । ।५।।
अर्थ भावलिंगी मुनि विचार करते हैं कि 'ज्ञान-दर्शन है लक्षण जिसका ऐसा और शाश्वत-नित्य जो आत्मा है सो ही एक मेरा है अन्य शेष जो भाव हैं वे मुझसे बाह्य हैं, वे सब ही संयोगस्वरूप हैं, परद्रव्य हैं।'
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