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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द idl. HDool DoG/S Dee/ HDoo/ bout Oload अनुष्टुप छंद ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्टिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे।। ५७।। हो विरत भाव ममत्व, निर्मम भाव में स्थित रहूँ । अवलम्बता हूँ आत्म को, अवशेष सबका त्याग है।।५७ ।। अर्थ 添添添添明帶男男戀戀戀%崇勇兼崇榮樂事業事業 भावलिंगी मुनि के ऐसे भाव होते हैं कि 'मैं परद्रव्यों और परभावों से ममत्व अर्थात् उन्हें अपना मानना छोड़ता हूँ तथा मेरा निजभाव जो कि ममत्व रहित है उसको अंगीकार करके स्थित होता हूँ। अब मुझे अपनी आत्मा ही का अवलंबन है, अवशेष परद्रव्य सम्बन्धी सारे ही आलम्बनों को मैं छोड़ता हूँ। भावार्थ सर्व परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर अपने आत्मस्वरुप में स्थित हो-ऐसा भावलिंग होता है।।५७।। उत्थानिका 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे कहते हैं कि 'ज्ञान, दर्शन, संयम, त्याग, संवर और योग-ये जो भाव भावलिंगी मुनि के होते हैं वे अनेक हैं तो भी आत्मा ही हैं इसलिए इनसे भी अभेद का अनुभव करते हैं :आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।। ५४।। मम ज्ञान में है आतमा, दर्शन-चरित में आतमा। आत्मा ही प्रत्याख्यान-संवर, योग में भी आतमा ।।५8 ।। अर्थ भावलिंगी मुनि विचारते हैं कि 'मेरे जो १.ज्ञान भाव प्रकट है उसमें आत्मा ही की भावना है, ज्ञान कोई भिन्न वस्तु नहीं है, ज्ञान है सो आत्मा ही है, ऐसे ही २.दर्शन 5555*5 -५-६६- 45*5555
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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