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अष्ट पाहु
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे शिष्य पूछता है कि 'भावलिंग को प्रधान करके निरूपण किया सो भावलिंग कैसा है ?' इसका समाधान करने के लिए भावलिंग का निरूपण करते हैं :
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देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ।। ५६ ।। देहादि संग रहित सकल, मानादि से भी मुक्त है। आत्मा में रत है आत्म जिसका, भावलिंगी साधु वह ।।५६ ।।
अर्थ भावलिंगी साधु ऐसा होता है कि देहादि समस्त परिग्रह से तथा मान कषाय से रहित होता है और आत्मा में लीन होता है वह आत्मा भावलिंगी है।
भावार्थ आत्मा के स्वाभाविक परिणाम को भाव कहते हैं, उसमयी लिंग अर्थात चिन्ह, लक्षण तथा रूप का होना सो भावलिंग है। आत्मा अमूर्तिक चेतना रूप है, उसका परिणाम दर्शन-ज्ञान है, उसमें कर्म के निमित्त से बाह्य में तो शरीरादि मूर्तिक पदार्थों का सम्बन्ध है और अन्तरंग में मिथ्यात्व और राग-द्वेष आदि कषायों का भाव है इसलिए कहा है कि 'बाह्य में तो देहादि परिग्रह से रहित
और अन्तरंग में रागादि परिणामों में अहंकार रूप मानकषाय अर्थात् परभावों 卐|| में अपनापना मानने रूप भाव से रहित हो और अपने दर्शन-ज्ञान रूप चेतना
भाव में लीन हो सो भावलिंग है और यह भाव जिसके होता है वह भावलिंगी साधु है'||५६।।
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उत्थानिका
आगे इसी अर्थ को स्पष्ट करके कहते हैं :
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