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अष्ट पाहु
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स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
आगे इस ही अर्थ से सम्बन्धित द्वीपायन मुनि का उदाहरण कहते हैं :
अवरो वि दव्वसवणो दसणवरणाणचरणपब्भट्ठो। दीवायणु त्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ।। ५०।।
और एक दूजे द्रव्य साधु, थे द्वीपायन नाम के। वर ज्ञान-दर्शन-चरण भ्रष्ट, अनन्त संसारी हुए।।५० ।।
अर्थ
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आचार्य कहते हैं कि जैसे पहले बाहू मुनि का द ष्टान्त कहा वैसे ही एक और भी द्वीपायन नामक द्रव्यश्रमण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्त संसारी हुए।
भावार्थ पूर्व के समान द्वीपायन मुनि की कथा संक्षेप से इस प्रकार है-नौवें बलभद्र ने श्री नेमिनाथ तीर्थंकर से पूछा कि 'हे स्वामिन् ! यह द्वारिकापुरी समुद्र में है सो इसकी स्थिति कितने समय तक की है ?' तब भगवान ने कहा कि 'रोहिणी का भाई द्वीपायन, तेरा मामा, बारह वर्ष पीछे मद्य के निमित से क्रोध करके इस पुरी को दग्ध करेगा।' ऐसे वचन भगवान के सुनकर और निश्चय करके द्वीपायन दीक्षा लेकर पूर्व देश में चला गया तथा बारह वर्ष व्यतीत करने के लिए उन्होंने तप करना प्रारम्भ किया। बलभद्र नारायण ने द्वारिका में मद्य-निषेध की घोषणा कराई तब मद्य बनाने वालों ने मद्य के बर्तन तथा उसकी सामग्री बाह्य पर्वतादि में फैंक दी, तब बर्तन की तथा मद्य सामग्री की मदिरा जल के निवास स्थानों में फैली।
पीछे बारह वर्ष बीते जानकर द्वीपायन द्वारिका आकर नगर के बाहर आतापन योग से स्थित हुए, भगवान के वचन की प्रतीति नहीं रखी। फिर क्रीड़ा करते हुए शम्भव कुमार आदि ने प्यासे होकर कुण्डों में जल जानकर पिया तब उस मद्य के निमित्त से वे कुमार उन्मत्त हुए और वहाँ द्वीपायन मुनि को स्थित देखकर 'यह द्वारिका को दग्ध करने वाला द्वीपायन है' ऐसा कहकर उनका पाषाण आदि से
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