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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
अर्थ
लिंगी होता है सो भावलिंग ही से होता है, द्रव्य मात्र से लिंगी नहीं होता- यह
प्रकट है इसलिए भावलिंग ही धारण करना, द्रव्यलिंग से क्या सिद्ध होता है ! भावार्थ
आचार्य कहते हैं कि "इसके सिवाय क्या कहें, भाव के बिना लिंगी नाम ही नहीं होता क्योंकि यह प्रकट है कि यदि भाव शुद्ध नहीं देखें तब लोक ही कहता है कि 'काहे का मुनि है, कपटी है' अतः द्रव्यलिंग से कुछ साध्य नहीं है, भावलिंग ही धारण करना योग्य है" ।। 88 ।।
उत्थानिका
आगे इसी को दढ़ करने के लिए द्रव्यलिंग धारक के उल्टा उपद्रव हुआ, इसका
उदाहरण कहते हैं
:
दंडयणयरं सयलं दहिओ अब्भंतरेण दोसेण ।
जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरयं णरयं ।। ४9|| दंडक नगर सारा जलाकर, अन्तरंग के दोष से ।
बाहू मुनि जिनलिंग धारी, नरक रौरव में गिरे । । ४१ । ।
अर्थ
देखो, बाहु नामक मुनि बाह्य जिनलिंग से सहित थे तो भी अभ्यंतर के दोष से समस्त दंडक नामक नगर को दग्ध किया और सप्तम पथ्वी के रौरव नामक बिल में पड़े।
भावार्थ
द्रव्यलिंग धारण करके यदि कुछ तप करे और उससे कुछ सामर्थ्य बढ़े तब कुछ कारण पाकर क्रोध करके अपने और पर के उपद्रव करने का कारण बनावे इसलिए
द्रव्यलिंग भाव सहित धारण करना तो श्रेष्ठ है पर केवल द्रव्यलिंग तो उपद्रव
५-५७ 專業
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